हुए हैं हम शिकार जबसे उसके अहसां के
उठा रहे हैं नाज़ बे- शुमार मेहमां के
है फ़िक्रे-दोस्ती तो क्यूं न हो गए मेरे
मिज़ाज पूछते हैं अब दिले-पशेमां के
अना संभाल के उड़ते गए ख़यालों में
न महफ़िलों के रहे और न बियाबां के
जहां में नाम है जिनका हरामख़ोरी में
सुबूत मांग रहे हैं वो: हमसे ईमां के
वक़्त जाता है तो आंसू भी पलट जाते हैं
ख़ुदा ख़िलाफ़ रहे या न रहे इन्सां के
करेंगे लाख जतन वो: शम्अ बुझाने के
ख़याल नेक नहीं आज अहले-तूफ़ां के
ख़ुदा भी देख रहा है इनायतें उनकी
बने हुए हैं जो दुश्मन हमारे अरमां के !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: नाज़: नख़रे; बे-शुमार: अगणित; फ़िक्रे-दोस्ती: मित्रता की चिंता; मिज़ाज: हाल-चाल; दिले-पशेमां: लज्जित हृदय; अना: अहंकार; महफ़िलों: सभा, गोष्ठी; बियाबां: उजाड़, निर्जन प्रदेश; अहले-तूफ़ां: झंझावात के साथी; इनायतें: कृपाएं; अरमां: अभिलाषा।
उठा रहे हैं नाज़ बे- शुमार मेहमां के
है फ़िक्रे-दोस्ती तो क्यूं न हो गए मेरे
मिज़ाज पूछते हैं अब दिले-पशेमां के
अना संभाल के उड़ते गए ख़यालों में
न महफ़िलों के रहे और न बियाबां के
जहां में नाम है जिनका हरामख़ोरी में
सुबूत मांग रहे हैं वो: हमसे ईमां के
वक़्त जाता है तो आंसू भी पलट जाते हैं
ख़ुदा ख़िलाफ़ रहे या न रहे इन्सां के
करेंगे लाख जतन वो: शम्अ बुझाने के
ख़याल नेक नहीं आज अहले-तूफ़ां के
ख़ुदा भी देख रहा है इनायतें उनकी
बने हुए हैं जो दुश्मन हमारे अरमां के !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: नाज़: नख़रे; बे-शुमार: अगणित; फ़िक्रे-दोस्ती: मित्रता की चिंता; मिज़ाज: हाल-चाल; दिले-पशेमां: लज्जित हृदय; अना: अहंकार; महफ़िलों: सभा, गोष्ठी; बियाबां: उजाड़, निर्जन प्रदेश; अहले-तूफ़ां: झंझावात के साथी; इनायतें: कृपाएं; अरमां: अभिलाषा।