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शुक्रवार, 19 मई 2017

नज़्म की ज़िंदगी ...

बता  कौन  तेरी  ख़ुशी  ले  गया
कि  कासा  थमा  कर  ख़ुदी  ले  गया

समझते  रहे  सब  जिसे  बाग़बां
गुलों  के  लबों  से  हंसी  ले  गया

सितारा  रहा  जो  कभी  बज़्म  का
वही  नज़्म  की  ज़िंदगी  ले  गया 

चमन  छोड़  कर  अंदलीबे-सुख़न
बहारों  की  ज़िंदादिली  ले  गया

नज़र  चूकते   ही  ख़ता  हो  गई
कि  लम्हा  चुरा  कर  सदी  ले  गया

सितम   के  नए  दौर  का  शुक्रिया
कि  आंखों  की  सारी  नमी  ले  गया

तलाशे-ख़ुदा  में  कमर  झुक  गई
कि  ये  शौक़  आवारगी  ले  गया  !

                                                                       (2017)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कासा: भिक्षा-पात्र; ख़ुदी: स्वाभिमान; बाग़बां: माली; गुलों: पुष्पों; लबों: होठों; सितारा: नक्षत्र; बज़्म: गोष्ठी; नज़्म: गीत; चमन: उपवन; अंदलीबे-सुख़न: साहित्य की कोयल, मधुर उद्गाता; ज़िंदादिली: जीवंतता; ख़ता: चूक, अपराध; लम्हा: क्षण; सदी: शताब्दी; सितम: अत्याचार; दौर: काल-खंड; तलाशे-ख़ुदा: ईश्वर की खोज; आवारगी: यायावरी।