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गुरुवार, 14 अगस्त 2014

ख़ुश्बुओं की तरह...

दोस्तों  में  रहे,  दुश्मनों  में  रहे
हर  जगह  हम  जवां  धड़कनों  में  रहे

दरिय:-ए-अश्क  की  थाह  लें  या  न  लें
रात  भर  ख़्वाब  इन  उलझनों  में  रहे

ख़ूब  है  इस  शहर  की  रवायत  जहां
माहो-ख़ुर्शीद  भी  चिलमनों  में  रहे

बात  की  बात  में  अजनबी  हो  गए
हमनवा  जो  कभी  बचपनों  में  रहे

मिट  गए  जो  सबा-ए-सहर  के  लिए
ख़ुश्बुओं  की  तरह  गुलशनों  में  रहे

अश्क  बन  कर  हमें  आक़िबत  ये  मिली
चश्मे-नम  से  गिरे,  दामनों  में  रहे

आ  चुके  थे  ख़ुदा  की  नज़र  में  मगर
हम  महज़  चंद  दिन  मुमकिनों  में  रहे !

                                                                 (2014)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की नदी; रवायत: परंपरा; माहो-ख़ुर्शीद: चंद्र-सूर्य; चिलमनों: आवरणों; हमनवा: एकस्वर,सदैव सहमत; सबा-ए-सहर: प्रातः समीर; आक़िबत: सद् गति; चश्मे-नम: भीगी आंखें; दामनों: उपरिवस्त्र, दुपट्टा आदि; महज़: मात्र; चंद: चार; मुमकिनों: संभावितों।