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रविवार, 22 नवंबर 2015

वक़ार की ख़ातिर

सर  उठाओ   बहार  की  ख़ातिर
ख़्वाब  पर  एतबार  की  ख़ातिर

मुल्क  के    नौजवां    परेशां  हैं
मुस्तक़िल  रोज़गार  की  ख़ातिर

पैदलों  को  हलाक़  मत  कीजे
लश्करे-शहसवार  की  ख़ातिर

सरफिरे  लोग   जां  लुटाते  हैं
शाह  के  इक़्तेदार  की  ख़ातिर

मुफ़्त  में  सर  न  काटिए  अपना
आशिक़ी  के  वक़ार   की  ख़ातिर

शाह  की  जूतियां  उठाएं  क्या
शायरी  में  मेयार  की  ख़ातिर ?!

दौड़  कर  अर्श  से  चले  आए
लोग  दीदारे-यार  की  ख़ातिर !

                                                                             (2015)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बहार:बसंत; ख़ातिर:हेतु; एतबार:विश्वास, आस्था; मुस्तक़िल : स्थायी;  रोज़गार : आजीविका; हलाक़ : वध, हत्या; लश्करे-शहसवार : अश्वारोही सैन्य दल; सरफिरे : मनोरोगी; इक़्तेदार : सत्ता; वक़ार: प्रतिष्ठा; मेयार: उच्च स्थान।

शनिवार, 21 नवंबर 2015

मंहगी मरम्मते-दिल ...

मिल  जाए  तो  ज़माना  लुट  जाए  तो  गया  क्या
फ़ानी  निज़ाम  हैं  सब   मिट  जाएं,  मुद्द'आ  क्या !

हम   इश्क़  के  लिए   तो  हरग़िज़    नहीं  बने   हैं
जिस  गांव   नहीं  जाना    अच्छा-बुरा-भला  क्या

मंहगी     मरम्मते-दिल     कब  तक   कराइएगा
अख़राच   के  मुताबिक़  कुछ  फ़ायदा  लगा  क्या

आज़ार  जिस्मो-दिल  का  हो  तो  इलाज  कर  लें
जो  रूह  पर  लगा  हो  उस  ज़ख़्म  की  दवा  क्या

सुनते   हैं    शाह    फ़र्ज़ी   जन्नत     बना  रहा  है
शद्दाद    के  शह्र    से   मोमिन   का   वास्ता  क्या

उसकी   नवाज़िशों   की   किसको   ग़रज़  नहीं  है
कर  दे   वही   करम  है   वरना   भरम   रहा  क्या

मश्हूर  है   कि  सबकी   सुनता  है   अर्श  पर   वो
देता   है   तो  सक़ी  है   लेता   है   तो   ख़ुदा  क्या  !

                                                                                                     (2015)

                                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़माना:संसार; फ़ानी: नश्वर; निज़ाम : प्रबंध; मुद्द'आ: विवाद का विषय; हरग़िज़: नितांत;    मरम्मते-दिल : हृदय की शल्य-क्रिया; अख़राच :व्यायादि; मुताबिक़ : अनुरूप; आज़ार : रोग; जिस्मो-दिल : शरीर और हृदय; रूह: आत्मा; ज़ख़्म : घाव; फ़र्ज़ी : कृत्रिम;  जन्नत : स्वर्ग; शद्दाद : अरब का एक मिथकीय राजा, स्व-घोषित 'ख़ुदा', जिसने कृत्रिम जन्नत का निर्माण कराया; शह्र : नगर; मोमिन:आस्तिक; वास्ता : संबंध; नवाज़िशों : कृपाओं; ग़रज़ : आवश्यकता; करम: दया; भरम : भ्रम; मश्हूर : प्रसिद्ध; अर्श : आकाश; सक़ी : दानी ।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

नई ख़ल्क़ के लिए ...

हर  शख़्स  उमीदों  का   धुवां  देख  रहा  है
तू    शाहे-बेईमान  !   कहां   देख   रहा  है  ?

बुलबुल  भी  जानता  है  क़ह्र  टूटने  को  है
सय्याद  अभी    तीरो-कमां    देख  रहा  है

अय  रश्क़े-माहताब  !  दुआ  दे  ग़रीब  को
मासूम-सा   चराग़    यहां     देख     रहा  है

खुलता  है  जहां  बाम   वहीं  दूर  पर   कहीं
कुछ  है  कि  जिसे   शाहजहां   देख  रहा  है

जिसका   है  इंतज़ार   अभी   आपको  यहां
शायद  वो   कहीं  और   मकां    देख  रहा है

जो तुमने गंवाया है तुम्हीं जानते हो दोस्त
जो  हमने  कमाया  है   जहां   देख  रहा  है

वो  भी  है  बे-क़रार   नई  ख़ल्क़   के   लिए
बर्बाद  गुलिस्तां   के   निशां    देख  रहा  है  !

                                                                                      (2015)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शख़्स: व्यक्ति; शाहे-बेईमान : निष्ठाहीनों का राजा; क़ह्र: विपत्ति; सय्याद:बहेलिया; तीरो-कमां: बाण और धनुष; अय : ए, हे (संबोधन); रश्क़े-माहताब: चंद्रमा की ईर्ष्या का पात्र; दुआ:शुभकामना; मासूम:अबोध, नन्हा; चराग़: दीपक; बाम: गवाक्ष; कुछ: यहां ताजमहल, शाहजहां को उसके पुत्र औरंगज़ेब ने आगरा के लाल क़िले में बंदी बना कर रखा, उस कक्ष के एक गवाक्ष से ताजमहल दिखाई देता है; मकां: आवास; बे-क़रार:आतुर, विचलित; ख़ल्क़: सृष्टि; बर्बाद  गुलिस्तां: ध्वस्त उपवन; निशां: चिह्न ।

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

अदना-सा आदमी...

जो   शख़्स    गए   दौर    तुम्हारे   क़रीब   था
वो     ऐतबारे-दिल   से    निहायत  ग़रीब  था

दुश्मन   न   था   हसीन  था   तस्वीरबाश  था
ये    और   बात   है   कि   हमारा    रक़ीब  था

बेशक़   वो   आज  एक   गुज़िश्ता  ख़याल  है
गो    एक  दौर   में  वो  बहुत  ख़ुशनसीब  था

अच्छा-बुरा    अज़ीमो-ख़्वार    आप  सोचिए
क़िस्सा-कोताह    ये  कि  वो  मेरा  हबीब  था

क्या  ख़ाक   सरफ़रोश  हुए   ये  मुजाहिदीन
मंसूर  तो  ख़ुदा  की  क़सम  ख़ुद  सलीब  था

तारीख़   के    सीने   में    कई   इन्क़लाब  हैं
सय्याद   के   मुक़ाबिल   जब   अंदलीब  था

लेटे  थे  क़ब्र  में  कि  सुनी  आपकी   ख़ेराज
'अदना-सा  आदमी  था,  सुना  है  अदीब  था !'

                                                                                     (2015)

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शख़्स: व्यक्ति; गए  दौर:अतीत में; ऐतबारे-दिल: मन के संदर्भ में; निहायत:अत्यंत; हसीन:सुंदर; तस्वीरबाश: चित्रों में दिखाई पड़ने वाला, चित्र-प्रेमी; रक़ीब:प्रतिद्वंद्वी; बेशक़: निस्संदेह; गुज़िश्ता  ख़याल: बीती बात; दौर: काल-खंड; ख़ुशनसीब: सौभाग्यशाली;   अज़ीमो-ख़्वार: महान और पतित; क़िस्सा-कोताह: कथा-सार; हबीब: प्रिय, प्रेमी; ख़ाक: धूल समान; सरफ़रोश: शीश लुटाने वाले, बलिदानी; मुजाहिदीन: 'धर्म-योद्धा'; मंसूर: हज़रत मंसूर अ.स., इस्लाम के प्रख्यात अद्वैतवादी, जिन्हें 'अनलहक़' ('अहं ब्रह्मास्मि') कहने के अपराध में सूली पर चढ़ा दिया गया था; सलीब: सूली; तारीख़: इतिहास; इन्क़लाब: क्रांति; सय्याद: बहेलिया;   मुक़ाबिल: सम्मुख; अंदलीब: बुलबुल या मैना; ख़ेराज: उद् गार; अदना: लघु, साधारण; अदीब: साहित्यकार ।

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

कोह हैं क्या ...

दर्द  जब  दिल  की  ख़लाओं  से  निकल  जाएंगे
रंग      बे-नूर       फ़ज़ाओं    के     बदल  जाएंगे

कमसिनी  है  कि  वो  जज़्बात  में  बह  जाते  हैं
उम्र  होगी    तो      ख़ताओं  से     संभल  जाएंगे

पेश  हो     ख़ुम्र      तभी     तो      बताएंगे  मर्ज़ी
शैख़   क्या     सिर्फ़    दुआओं  से   बहल   जाएंगे

ज़र्फ़  हममें  हो   तो   दरिय:-ओ-समंदर  क्या  हैं
वर्न:     क़तरे  की     अदाओं  पे     मचल  जाएंगे

आहे-बुलबुल   का    असर    आज    जहां  देखेगा
हाथ   के   तीर     वफ़ाओं    से     फिसल   जाएंगे

नफ़्स  में    दम  है    तो   सौ  बार  बुझा  कर  देखें
हम  वो  शम्'.अ  हैं,   हवाओं  में  भी  जल  जाएंगे

शान   से     आप       हरारत       दिखाइए   हमको 
कोह  हैं  क्या    कि    शुआओं  से    पिघल  जाएंगे  ?!


                                                                                                      (2015)

                                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़लाओं: एकांतों; बे-नूर: विवर्ण, आभाहीन; फ़ज़ाओं: परिदृश्यों,वातावरणों; कमसिनी: बाल्यावस्था; जज़्बात: भावनाओं; ख़ताओं: भूलों; ख़ुम्र: मदिरा; मर्ज़ी: इच्छा; शैख़: धर्मभीरु; दुआओं: प्रार्थनाओं, शुभेच्छाओं; ज़र्फ़: गहनता; दरिय:-ओ-समंदर: नदी और समुद्र; वर्न::अन्यथा; क़तरे: बूंद; अदाओं: भाव-भंगिमाओं; आहे-बुलबुल: मैना का आर्त्तनाद; वफ़ाओं: निष्ठाओं; नफ़्स: प्राण, सांस, फेफड़े; 
शम्'.अ: दीपिका; हरारत: प्रचंड तेज, ऊष्मा; कोह:पर्वत, मिथक के अनुसार ईश्वर के प्रकट होने पर कोह-ए-तूर नाम का पर्वत उनके प्रचंड तेज से पिघल गया था; शुआओं: किरणों ।

शनिवार, 14 नवंबर 2015

...इशारा कर लिया !

ख़ुल्द  से   जबसे   किनारा   कर  लिया
घर    फ़रिश्तों  ने   हमारा    कर  लिया

दाल-रोटी   तक     ख़ुदा   ने    छीन  ली
हमने   फ़ाक़ों   से   गुज़ारा    कर  लिया

भुगतिए    तकरीर  पर    तकरीर  अब
ख़ामोख़्वाह  उनको  इशारा  कर  लिया

चांदनी   की     दिलनवाज़ी    देख   कर
हमने   ख़ुद   को   माहपारा  कर  लिया

दिल  लगा  कर  शैख़  से  उस  शोख़  ने
आख़िरत  तक   का  सहारा  कर  लिया

हज़रते   मूसा     यहां  तक    गिर  गए
बे-हयाई   से      नज़ारा       कर  लिया

मर  मिटे  मालिक  मकां  के  हुस्न  पर
ख़ुल्द  में    रहना    गवारा    कर  लिया  !

                                                                                    ( 2015 )

                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुल्द: स्वर्ग; फ़रिश्तों: देव दूतों; फ़ाक़ों:  निर्जल उपवासों; गुज़ारा: निर्वाह; तकरीर: भाषण; ख़ामोख़्वाह: निरुद्देश्य; इशारा: संकेत;  दिलनवाज़ी: हार्दिक सत्कार; माहपारा: चंद्रमा का अंश, टुकड़ा;   शैख़; धर्म भीरु, प्रचारक; शौख़: चंचल; आख़िरत: अंतिम न्याय, परलोक; हज़रते मूसा: हज़रत मूसा अ. स., जिन्हें ख़ुदा ने अपनी झलक दिखाई थी; बे-हयाई: निर्लज्जता से ; नज़ारा: दर्शन; मालिक मकां: भवन स्वामी;  हुस्न: सौंदर्य; गवारा: स्वीकार।  

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

अना के बावजूद...

आपकी     सारी    जफ़ा   के     बावजूद
जी   उठे   हम     बद्दुआ  के      बावजूद

वस्ल की शब  हो गए  फिर  हम  उदास
यार  की   दिलकश  अदा  के    बावजूद

है    मरीज़े-इश्क़    अब  भी    लाइलाज
ख़ास     लुकमानी   दवा     के   बावजूद

शान   से     रौशन   रखे    हमने   चराग़
नूर    की    दुश्मन    हवा   के    बावजूद

लोग   दहशत  में  रहें   क्यूं  कर  जनाब
शह्र    की     रंगीं   फ़िज़ा    के    बावजूद

जाहिलों   में   आ   नहीं    जाता     शुऊर
ख़ुल्द     में     दर्से-ख़ुदा     के      बावजूद

क्यूं   ख़ुदा     दहक़ान   से    है   बेनियाज़
रात- दिन     हम्दो-सना     के     बावजूद

अब   मुअज़्ज़िन    दे  नहीं   पाता  अज़ान
दिलनशीं        बादे-सबा    के        बावजूद

शबो-शब     घटता   गया     उनका   मेयार
दिन  ब  दिन     बढ़ती   अना  के   बावजूद !

                                                                               (2015)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जफ़ा: छल; बावजूद: बाद भी; वस्ल की शब: मिलन-निशा; दिलकश: चित्ताकर्षक; अदा:भंगिमा;   मरीज़े-इश्क़: प्रेम-रोगी; लाइलाज: अनुपचार्य; लुकमानी: यूनानी चिकित्सा पद्धति के प्रसिद्धतम चिकित्सक; शान:भव्यता; रौशन: प्रज्ज्वलित; चराग़; दीपक; नूर:प्रकाश; दहशत: आतंक; शह्र: नगर; रंगीं:सुंदर, विविधतापूर्ण; फ़िज़ा: पर्यावरण; जाहिलों: जड़-बुद्धि व्यक्तियों; शुऊर: शिष्टाचार; ख़ुल्द:स्वर्ग;    दर्से-ख़ुदा: ईश्वरीय उपदेश; दहक़ान:कृषकों; बेनियाज़: असंपृक्त; हम्दो-सना:पूजा-आरती; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; दिलनशीं: मनोहारी; बादे-सबा:प्रभात-समीर; शबो-शब: निशा-प्रतिनिशा; मेयार: सामाजिक उच्च-स्थिति, प्रतिष्ठा; दिन  ब  दिन: दिन-प्रतिदिन; अना:ठसक।





बुधवार, 11 नवंबर 2015

रहज़नों का काम...

दिल  कहां   सीने  में  जैसे   दुश्मने-जां    हो  गया 
आईने  में   देख  कर   सच  को  पशेमां    हो  गया

हार  कर  भी  तो  सबक़  सीखा  नहीं  कमज़र्फ़  ने
ठोकरों  की    मार  से    मुंहज़ोर    नादां    हो  गया

'ये  न खाओ'  'वो  न पहनो'  'यूं चलो'  'ऐसे  जियो'
क्या  तरक़्क़ी  का  यही   बस  एक  पैमां  हो  गया

दाल-रोटी     के  लिए  भी     चोरियां     होने  लगीं
मुफ़लिसी  से  किस  क़द्र  कमज़ोर  ईमां  हो  गया

देख  लें    जूता  सुंघा  कर    होश  आ  जाए   कहीं
शाह   की   मदहोशियों  से   घर   परेशां   हो  गया 

ख़ुदनुमाई  का    तमाशा    ख़त्म     होता  ही  नहीं
ताजदारों   की    अदा  से     मुल्क   हैरां   हो  गया

जुर्म  है    फ़िरक़ापरस्ती    जानते  हैं  सब   मगर
इस  गली  से  रहज़नों  का  काम  आसां  हो  गया  !    

                                                                                                 (2015)

                                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दुश्मने-जां: प्राणों का शत्रु; पशेमां: लज्जित; सबक़: पाठ, शिक्षा; कमज़र्फ़: उथला, अ-गंभीर;   मुंहज़ोर: वाचाल, बकवासी;  नादां:अल्प-बुद्धि; तरक़्क़ी: प्रगति; पैमां: मापदंड; मुफ़लिसी:वंचन, निर्धनता; किस  क़द्र:किस सीमा तक; ईमां:निष्ठा; मदहोशियों: उन्मत्तताओं; परेशां: विचलित, अस्त-व्यस्त; ख़ुदनुमाई:आत्म-प्रदर्शन; ताजदारों: शासकों; अदा:हाव-भाव, शैली; मुल्क:देश; हैरां: चकित; जुर्म: अपराध; फ़िरक़ापरस्ती: सांप्रदायिकता; रहज़नों: मार्ग में लूटने वाले; आसां:सरल।






मंगलवार, 10 नवंबर 2015

मुलम्मा देख कर

ख़बर  रखिए  ज़रा-सी  आप  अपने  जां-निसारों  की
वगरन:     जान      जाएगी     हज़ारों     बेक़रारों  की

चुहलबाज़ी,    मज़ाहो-तंज़    सारे    खेल   जायज़  हैं
बशर्त्ते   आपके  दिल  में   जगह  हो   दोस्त-यारों  की

जहां  इंसानियत  का   नाम    लेना  भी   बग़ावत  हो
वहां   उम्मीद   क्या  रखिए   मुहब्बत की  बहारों  की

मुलम्मा   देख  कर    ख़ुश  हैं   किराएदार   बाहर  का
किसे  है    फ़िक्र    घर  में   फैलती  जाती   दरारों  की

हमारा   एक  .खूं   है,    एक   मज़हब,    एक  है   ईमां
इबादत    हम  नहीं  करते    जहां  के     ताजदारों  की 

शहंशाही      करम   से    दूर  रहना  ही    मुनासिब  है
वो:    अक्सर  जान  भी   ले  डालते  हैं    राज़दारों  की

छुपाना  ही    नहीं  मुमकिन   ग़मे-दिल  आबशारों  से
तुम्हारे  चश्म    करते  हैं    शिकायत   ग़मगुसारों  की !

                                                                                                   (2015)

                                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जां-निसारों: प्राण न्यौछावर करने वालों; वगरन::अन्यथा; बेक़रारों: उत्कंठितों; चुहलबाज़ी:छेड़-छाड़; मज़ाहो-तंज़: हास्य-व्यंग्य; जायज़: समुचित; बग़ावत:विद्रोह; मुलम्मा: बाह्यावरण, ऊपरी रंग-रूप; किराएदार:प्रवासी, मूल्य दे कर थोड़े समय के निवासी; .खूं: रक्त; मज़हब: धर्म; ईमां: आस्था; इबादत: पूजा;   जहां: संसार; ताजदारों: मुकुट पहनने वालों, सत्ताधीशों; शहंशाही: राजसी; करम: कृपा; मुनासिब: न्याय-संगत; राज़दारों : रहस्य जानने वालों; मुमकिन: संभव; ग़मे-दिल: हृदय की पीड़ा;   आबशारों: झरनों, जल-प्रपातों; 
चश्म: नयन; ग़मगुसारों: दुःख में सांत्वना देने वालों।



सोमवार, 9 नवंबर 2015

नफ़रतों की सियाही...

वक़्त  की  ठोकरों  ने  सताया  बहुत
पर  हमें  यह  सफ़र  रास  आया  बहुत

दुश्मनों  ने  हमेशा  यक़ीं   कर  लिया
दोस्तों  ने  मगर  आज़माया  बहुत

थी  हमारी  कमी  यह  कि  तन्हा  जिए
इश्क़  तो  आपने  भी  निभाया  बहुत

नफ़रतों  की  सियाही  न  कम  हो  सकी
रौशनी  के  लिए  घर  जलाया  बहुत

सालहा  साल  हम  याद  आते  रहे
गो  हमें  आशिक़ों  ने  भुलाया  बहुत

कर  सका  ख़ुल्द  पर  वो  न  राज़ी  हमें
ज़ोर  हम  पर  ख़ुदा  ने  लगाया  बहुत

जी  किया  तूर  पर  जल्व: गर  हो  गए
हां  हमें  तीरगी  ने  डराया  बहुत  !

                                                                                   (2015)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: यक़ीं: विश्वास; तन्हा: अकेले; नफ़रतों: घृणाओं; सियाही:कालिमा, अंधकार; सालहा  साल: वर्ष प्रति वर्ष; ख़ुल्द:स्वर्ग; राज़ी:सहमत; ज़ोर:बल;  तूर: एक मिथकीय पर्वत; जल्व: गर:प्रकट; तीरगी:अंधकार।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

घर में फ़जीहत ...

लब   लरज़ते   ही   क़यामत  हो  गई
जान  की  दुश्मन  सियासत  हो  गई

चंद  जाहिल    शायरी  में     आ  गए
बज़्म  से   ग़ायब   नफ़ासत  हो  गई

बदनिज़ामी    देखिए    इस  दौर  की
शाह  की   घर  में   फ़जीहत  हो  गई

इत्तिफ़ाक़न  मिल  गए  पर  शाह  को
रोज़  की    परवाज़    आदत  हो   गई

शाह  को    मंहगाई  पर    उस्ताद  से
बे-हयाई     की      नसीहत    हो  गई

आईने    के     रू-ब-रू   जब  भी  हुए
ताजदारों     को    हरारत    हो     गई  

ख़्वाब  में  आ  तो  रहे  थे   वो   मगर
राह  में   नासाज़   तबियत   हो   गई

आज  भी  दिल  रात  भर  धड़का  किया
आज  फिर  नाकाम  हिकमत   हो  गई

शाह   को  अब   शुक्रिया   कह  डालिए
सांस   लेने    की    इजाज़त    हो  गई  !

                                                                              (2015)

                                                                        -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: लब : ओष्ठ-अधर; लरज़ते: कांपते; क़यामत: प्रलय;  सियासत: राजनीति; चंद: चार,कुछ; जाहिल: अशिक्षित, जड़-बुद्धि; बज़्म: गोष्ठी,सभा; नफ़ासत: शालीनता, भद्रता; बदनिज़ामी: कुप्रबंध, कु-व्यवस्था;  दौर: काल-खंड; फ़जीहत: दुर्दशा; इत्तिफ़ाक़न : संयोगवश; पर: पंख; परवाज़: उड़ान; बे-हयाई: निर्लज्जता;   नसीहत: शिक्षा, दिशा-निर्देश; आईने :दर्पण;  रू-ब-रू : मुखामुख, समक्ष; ताजदारों: मुकुट-धारियों, सत्ताधारियों;  हरारत :ज्वर;  नासाज़ :अ-स्वस्थ;  नाकाम: असफल, व्यर्थ; हिकमत: वैद्यक;  इजाज़त:अनुमति।