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गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

नूर न पाया जिसने...

यारों  का  ग़म  दूर  न  होगा
तो  सज्दा   मंज़ूर   न  होगा

ख़ुशफ़हमी  में  जीते  रहिए
ज़ख़्म  कभी  नासूर  न  होगा

खुल  कर  सब  कुछ  कह  देता  है
यह  शायर  मशहूर  न  होगा

हर  नाल:   नाकाम  रहेगा
दर्द  अगर  भरपूर  न  होगा

जिस्म  अभी  तो  चल  जाएगा
जब  तक  थक  कर  चूर  न  होगा

शाहों  से  समझौता  कर  ले
दिल  इतना  मजबूर  न  होगा

ख़ुद  में  नूर  न  पाया  जिसने
वो    मूसा     मंसूर  न  होगा  !

                                                              (2014)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सज्दा: आपादमस्तक प्रणाम; ख़ुशफ़हमी: सुख का भ्रम; नासूर: कठिन घाव, जिसमें कीड़े पड़ जाएं; नाल:: आर्त्तनाद; नाकाम: निष्फल; नूर: प्रकाश; मूसा: हज़रत मूसा अ.स., जिन्होंने ख़ुदा की झलक पाने का दावा किया, इस्लाम के द्वैत-वादी दार्शनिक; मंसूर: हज़रत मंसूर अ.स., जिन्होंने 'अनलहक़' ('अहं ब्रह्मास्मि') का उद्घोष किया जिसके कारण उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया, बाद में ईश्वर के दूत के रूप में स्वीकृत हुए, इस्लाम के अद्वैतवादी दार्शनिक।