सादगी उनकी क़ह्र ढाने लगी
आइनों पर बे-ख़ुदी छाने लगी
जब सफ़र में रात गहराने लगी
सह्र की उम्मीद बहलाने लगी
रंग में आए नहीं हैं हम अभी
दुश्मनों की रूह घबराने लगी
एक रोज़ा बढ़ गया रमज़ान में
मोमिनों की जान पर आने लगी
ज़िंदगी ने तंज़ कोई कर दिया
मौत वापस रूठ कर जाने लगी
मुफ़लिसों की आह के तूफ़ान से
शाह की सरकार थर्राने लगी
भूल से भी हम किसी दिन रो पड़े
आसमां की चश्म धुंधलाने लगी !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: क़ह्र: आपदा; बे-ख़ुदी: आत्म-विस्मृति; सह्र: उषा; रूह: आत्मा; रोज़ा: उपवास; रमज़ान: पवित्र माह; मोमिनों: आस्तिकों; तंज़: व्यंग्य; मुफ़लिसों: दीन-हीन; आसमां: देवलोक; चश्म: आंख, दृष्टि।
आइनों पर बे-ख़ुदी छाने लगी
जब सफ़र में रात गहराने लगी
सह्र की उम्मीद बहलाने लगी
रंग में आए नहीं हैं हम अभी
दुश्मनों की रूह घबराने लगी
एक रोज़ा बढ़ गया रमज़ान में
मोमिनों की जान पर आने लगी
ज़िंदगी ने तंज़ कोई कर दिया
मौत वापस रूठ कर जाने लगी
मुफ़लिसों की आह के तूफ़ान से
शाह की सरकार थर्राने लगी
भूल से भी हम किसी दिन रो पड़े
आसमां की चश्म धुंधलाने लगी !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: क़ह्र: आपदा; बे-ख़ुदी: आत्म-विस्मृति; सह्र: उषा; रूह: आत्मा; रोज़ा: उपवास; रमज़ान: पवित्र माह; मोमिनों: आस्तिकों; तंज़: व्यंग्य; मुफ़लिसों: दीन-हीन; आसमां: देवलोक; चश्म: आंख, दृष्टि।