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बुधवार, 4 दिसंबर 2013

सिला - ए - इंतज़ार

रुख़  - ए - बहार   मेरे  शह्र  ने    नहीं  देखा
सिला - ए - इंतज़ार    सब्र   ने    नहीं  देखा

तू  बदगुमाँ  है   ग़रीबां  पे   ज़ुल्म  ढाता है
मेरा   जलाल    तेरे  जब्र  ने     नहीं   देखा

फ़रेब-ओ-मक्र  की   इफ़रात  है  जहाँ  देखो
ये:  दौर   और  किसी  उम्र  ने    नहीं  देखा

तू संगदिल तो नहीं है   मगर कभी तुझको
मेरे  मकां  पे   शब् - ए -क़द्र  ने  नहीं देखा !

हर एक सिम्त  आसमां से नियामत बरसी
सहरा-ए-दिल की तरफ़  अब्र ने नहीं देखा।

                                                  (2010)

                                       -सुरेश स्वप्निल  

शब्दार्थ: रुख़  - ए - बहार: बसंत का मुख; सिला - ए - इंतज़ार: प्रतीक्षा का पुरस्कार; बदगुमाँ: भ्रमित, बुरे विचार वाला; ग़रीबां: कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन अ. स. के साथी; ज़ुल्म: अत्याचार; जलाल: तेज; जब्र: अन्याय, विवश करना; फ़रेब-ओ-मक्र: छल-छद्म; 
इफ़रात: बहुतायत; संगदिल: पाषाण-हृदय; मकां: क़ब्र, समाधि; शब् - ए -क़द्र: मृतात्माओं के सम्मान की रात; सिम्त: ओर; आसमां: स्वर्ग, परलोक; नियामत: कृपा; सहरा-ए-दिल: हृदय का मरुस्थल; अब्र: मेघ।