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गुरुवार, 1 अगस्त 2013

दर पे तेरे बैठे हैं

कितने आसान से अल्फ़ाज़ में  ना करते हो 
वाह  जी  वाह !  दोस्तों को  मना  करते हो !

हसरते-दीद   में   हम   दर  पे   तेरे   बैठे  हैं 
और तुम  ग़ैर के घर जा के   वफ़ा  करते हो 

कल कहा दोस्त आज हमसे दुश्मनी कर ली 
लोग हैरत में हैं क्या कहते हो क्या करते हो 

ये: भी माना के: अब दोस्त नहीं हम तो फिर 
कौन  से  हक़  से  मेरे दिल में  रहा करते हो 

ख़ूब हैं  आपकी  ख़ामोशियां सुब्हान अल्लाह 
तोड़   के  सैकड़ों  दिल   सूम   बना  करते हो 

हम  दीवाने   तुम्हें   बेकार  ही   दिल  दे  बैठे 
तुम  तो  हर  एक  के अश्'आर सुना करते हो 

क़ब्र   में   भी   हमें   तुम   चैन  न   लेने दोगे 
क़त्ल कर फिर से जी उठने की दुआ करते हो !

                                                           ( 2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अल्फ़ाज़: शब्द ( बहुव.);हसरते-दीद: दर्शन की अभिलाषा;दर: द्वार;  ग़ैर: पराए; वफ़ा: निर्वाह;  हक़: अधिकार; सूम: घुन्ना, मौनी।