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गुरुवार, 31 मार्च 2016

दुआओं में प्यार

हम  हैं   तो   आस्मां  है    ज़मीं  है    बहार  है
हम  हैं  तो  नज़्रे-हुस्न  में  शामिल  ख़ुमार  है

हम  हैं  तो  उन्हें    इश्क़  प'  भी   एतबार  है
हम  हैं  तो  दिल   जनाब  का   बेरोज़गार  है

हम  हैं  तो  कोई     आपका    उम्मीदवार  है
हम  हैं  तो  और   कौन   मह् वे-इंतज़ार    है

हम  हैं  तो  आज  वक़्त  को   सब्रो-क़रार  है
हम  हैं  तो  लम्हा-लम्हा  महकता  मदार  है

हम  हैं  तो    आसपास   गुलों  की   क़तार  है
हम  हैं  तो      ख़ुश्बुए-गुलाब      बरक़रार  है

हम  हैं  तो     बाग़ियों  की  तेग़     धारदार  है
हम  हैं  तो  ख़ौफ़  शाह  के  सर  पर  सवार है

हम  हैं  तो  सफ़ में ज़र्फ़  दुआओं में  प्यार  है
हम  हैं  तो  हर      नमाज़े-शह्र     यादगार  है  !

                                                                                  (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आस्मां : आकाश, देवत्व ; ज़मीं : पृथ्वी, देवत्व ; नज़्रे-हुस्न : सौंदर्य-दृष्टि ; ख़ुमार : मदिरता ; प' : पर ; एतबार : विश्वास ; 
जनाब : श्रीमान ; मह् वे-इंतज़ार: प्रतीक्षा में व्यस्त ;  सब्रो-क़रार : धैर्य एवं आश्वस्ति ; लम्हा-लम्हा : क्षण-क्षण ; मदार : भ्रमण-मार्ग ; 
क़तार : पंक्ति, क्यारी ;   बरक़रार : शेष ; बाग़ियों : विद्रोहियों ; तेग़ : खड्ग ; ख़ौफ़ : भय ; सफ़ : नमाज़ पढ़ने वालों की पंक्ति ; ज़र्फ़ : गहनता , गंभीरता ; दुआओं : शुभाकांक्षाओं ; नमाज़े-शह्र : नगर की नमाज़ ; यादगार : स्मरणीय ।

बुधवार, 30 मार्च 2016

हौसला बाग़ियों का ...

वो  सुलगते  रहें  हम  बुझाते  रहें
दोस्त  क्यूं  आग  ऐसी  लगाते  रहें

इश्क़  को  क़र्ज़  कहना  मुनासिब  नहीं
पर  मिले  जो  उसे  तो  चुकाते  रहें

मुश्किलें  एक  मामूल  हैं  ज़ीस्त  का
क्यूं  न  फिर  मुस्कुरा  कर  निभाते  रहें

हुब्ब  है  या  शरारत  नई  आपकी
वस्ल  में  भी  अगर  याद  आते  रहें

है  अदा  सर  झुकाना  अगर  आपकी
शौक़  से  चोट  पर  चोट  खाते  रहें

ज़ार  से  जीतना  सब्र  का  खेल  है
हौसला  बाग़ियों  का  बढ़ाते  रहें

कोई  उम्मीद  हो  तो  इबादत  करें
मुफ़्त  में  क्यूं  ख़ुदा  को  मनाते  रहें !

                                                                          (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : मुनासिब : उचित ; मामूल : साधारण चर्या ; ज़ीस्त : जीवन ; हुब्ब : प्रेम ; वस्ल : मिलन ; ज़ार : अत्याचारी, निरंकुश शासक ; सब्र : धैर्य ; हौसला : उत्साह ; बाग़ियों : विद्रोहियों ; इबादत : पूजा-पाठ ।

सोमवार, 28 मार्च 2016

दिल का निज़ाम

दिल  का  निज़ाम  रोज़  बदलता  चला  गया
हाथों  से  मेरे  वक़्त  फिसलता  चला  गया

तुम  तो  पिला  के  ख़ुम्र   हुए  ख़ुद  से  बेख़बर
वो:   कौन  था  जो  पी  के  संभलता  चला  गया

हमने  गो  बंदिशों  से  दिल  को  दूर  ही  रखा
लेकिन  वो:  शख़्स  हाथ  मसलता  चला  गया

उनसे  नज़र  मिली  तो  कहीं  के  नहीं  रहे
दिल  यूं  गया  गया  कि  मचलता  चला  गया

मुद्दत  के  बाद  आईने  से  रू-ब-रू  हुए
ग़म  का  ग़ुबार  था  कि  निकलता  चला  गया

जिसकी  तलाश थी  मैं  उसे  पा  नहीं   सका
रिज़्वां !  मैं  तेरे  दिल  में  टहलता  चला  गया

मज़्लूम  की  आहों  ने  वो:  तूफ़ां  उठा  दिया
दहशत  से  आस्मां  भी  दहलता  चला  गया  !

                                                                                     (2016)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: निज़ाम : शासन, व्यवस्था; ख़ुम्र: मदिरा ; बेख़बर : निश्चिंत ; गो : यद्यपि ; बंदिशों : प्रतिबंधों ; शख़्स : व्यक्ति ; मुद्दत : लंबा समय ; रू-ब-रू : सम्मुख ; ग़ुबार : धूल, मनोमालिन्य ; रिज़्वां : रिज़्वान, जन्नत/स्वर्ग के उद्यान का देख-रेख करने वाला ; मज़्लूम : अत्याचार-पीड़ित ; दहशत : भय, आतंक ; आस्मां: आकाश, परलोक, ईश्वर ।

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

परवा: कौन करे !

तकरीर  की  परवा:  कौन  करे
बेपीर  की  परवा:  कौन  करे

दिलवाले  दिल  पर  मरते  हैं
तस्वीर  की  परवा:  कौन  करे

जो  तीर  निगाहों  से  निकले
उस  तीर  की  परवा:  कौन  करे

ख़त  के  मौजूं   से  मतलब  है
तहरीर  की  परवा:  कौन  करे

वो:  ज़ह्र  पिलाएं  या  आंसू
तासीर  की  परवा:  कौन  करे

हम  ख़्वाबतराशी  करते  हैं
ता'बीर  की  परवा:  कौन  करे

है  ज़ार  निशाने  पर  अपने
ता'ज़ीर  की  परवा:  कौन  करे

हालात  बग़ावत  के  हों  जब
ज़ंजीर  की  परवा:  कौन  करे

बारूद  रग़ों  में  है  जब  तक
शमशीर  की  परवा:  कौन  करे  !

                                                              (2016)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तकरीर : भाषण; परवा: चिंता; बेपीर: निर्दयी; ख़त : पत्र; मौजूं : विषय; तहरीर : हस्तलिपि; ज़ह्र : विष; तासीर: प्रभाव; ख़्वाबतराशी : स्वप्न को सुंदर बनाना; ता'बीर : स्वप्न का फल; ज़ार : अत्याचारी शासक; ता'ज़ीर : दंड; हालात : परिस्थितियां; बग़ावत : विद्रोह; रग़ों: शिराओं; शमशीर: तलवार, कृपाण।

सोमवार, 21 मार्च 2016

हिज्र में उम्र कटना...

दुश्मनों  से  लिपटना  बुरी  बात  है
दोस्तों   से  सिमटना  बुरी  बात  है

शोख़ियों  के  सहारे  किसी  शख़्स  की
बाज़िए -दिल  उलटना   बुरी  बात  है

एक  दिन  भी  जुदाई  बड़ी  चीज़  है
हिज्र  में  उम्र  कटना  बुरी  बात  है

वस्ल  के  वक़्त  वादा-ख़िलाफ़ी न  कर
पास  आकर  पलटना  बुरी  बात  है

जज़्ब  जज़्बात  को  कीजिए  नफ़्स  में
दिल  सरे-राह  लुटना  बुरी  बात  है

हाले-दिल  दोस्तों  को  सुनाते  रहें
ग़म  से  तन्हा  निबटना  बुरी  बात  है

हमक़दम  बन  सको  तो  चलो  साथ  में
हर  क़दम  पर  घिसटना  बुरी  बात  है  !

                                                                                (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शोख़ियों: चपलताओं; शख़्स : व्यक्ति ; बाज़िए-दिल : मन का दांव ; जुदाई : अलग होना ; हिज्र : वियोग ; वस्ल : मिलन ; वादा-ख़िलाफ़ी : वचन भंग ; जज़्ब : विलीन ; जज़्बात : भावनाओं ; नफ़्स : श्वास; सरे-राह : मार्ग के मध्य ; हाले-दिल : मन की स्थिति ; तन्हा : अकेले ; हमक़दम : पग-पग पर साथ देने वाला ।

रविवार, 20 मार्च 2016

मेहमान की अदा ...

किस-किसके  ग़म  उठाए,  जिए  और  मर  गए
अपना  हिसाब  पढ़  के  फ़रिश्ते  भी  डर  गए

है  इब्तिदाए-इश्क़  कि  मेहमान  की  अदा
जो  मेज़बां  के  साथ  सुबह  तक  ठहर  गए

तन्हा  हुए  तो  ख़ुद  के  लिए  वक़्त  मिल  गया
वरना  तो  उनके  साथ  ज़माने  गुज़र  गए

हर  दम  हमारे  साथ  यही  हादसा  हुआ
सब  दिल  के  ख़रीदार  नज़र  से उतर  गए

क्या  ख़ूब  बज़्म  थी  कि  सभी  हमक़दह  मिरे
पीकर  मिरी  शराब  मशाईख़  के  घर  गए

किसको  बताएं  हम  कि  शबे-क़त्ल  क्या  हुआ
किरदारे-ख़्वाब  नींद  से  उठ  कर किधर  गए

क़ाफ़िर  सही  प'  दिल  में  तमन्ना  ज़रूर  है
देखेंगे  तिरा  घर  भी  मदीने  अगर  गए  !

                                                                                 (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रिश्ते : देवदूत; इब्तिदाए-इश्क़ : प्रेमारंभ ; मेज़बां : गृहस्वामी ; तन्हा : अकेले ; हादसा : दुर्घटना ; ख़रीदार : ग्राहक ; नज़र : दृष्टि ; बज़्म : गोष्ठी ; हमक़दह : एक ही पात्र से मदिरा-पान करने वाले ; मशाईख़ : शैख़ का बहुव., पीर, धर्म-भीरु, ब्रह्म-ज्ञानी, आदि; शबे-क़त्ल : हत्या की रात्रि ; किरदारे-ख़्वाब : स्वप्न के पात्र/ चरित्र ; क़ाफ़िर : नास्तिक ; तमन्ना : इच्छा ।

शुक्रवार, 18 मार्च 2016

दरपेश हक़ीक़त

हम  इश्क़  नहीं  करते  तो  क्या  इस  दुनिया  के  इंसान  नहीं
शाइस्ता  हैं  तो  क्या  हमको  दिल  वालों  की  पहचान   नहीं

इस  मुल्क  के  ज़र्रे-ज़र्रे  पर  हक़  है  मज़्लूम  ग़रीबों  का
सरमाए  वाले  भूल  गए  हम  मालिक  हैं  मेहमान  नहीं

इस  रिज़्क़  के   दाने-दाने  में  है  ख़ून-पसीना  भी  शामिल
यह  अपनी  नेक  कमाई  है  ज़रदारों  का  एहसान  नहीं

दहशत  फैलाने  वालों  के  पीछे  सरकारी  फ़ौजें   हैं 
सच  कहने  में  भी  ख़तरा है  चुप  रहना  भी  आसान  नहीं

इस  ज़ोर-ज़ुल्म  के  मौसम  में  कुछ  लोग  घरों  में  दुबके  हैं
ये  किस  मिट्टी  के  लौंदे  हैं  जिनके  दिल  में  तूफ़ान  नहीं

हम  पस्मांदा  इंसानों  की  साझा  है  जंग  हुकूमत  से
दरपेश  हक़ीक़त  है  सबके  दुश्मन  सच  से अनजान  नहीं

वो:  वक़्ते-जनाज़ा  आए  हैं  इज़्हारे-अदावत  करने  को
अफ़सोस !  मगर  अब  सीने  में  जीने  का  ही  अरमान  नहीं !

                                                                                                            (2016)

                                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शिष्ट, सभ्य; दिलवालों : सहृदय व्यक्तियों; ज़र्रे-ज़र्रे : कण-कण ; हक़ : अधिकार ; मज़्लूम : अन्याय-पीड़ित; सरमाए वाले: पूंजीपति ; रिज़्क़ : भोजन, खाद्य-सामग्री ; नेक : भली ; ज़रदारों : स्वर्णशाली, समृद्ध जनों ; एहसान : अनुग्रह ; दहशत : आतंक ; ज़ोर-ज़ुल्म : अत्याचार एवं अन्याय ; पस्मांदा : दलित-शोसित ; जंग : संघर्ष ;  hहुकूमत : शासक वर्ग। सरकारी तंत्र ; दरपेश ; द्वार के आगे, समक्ष ; वक़्ते-जनाज़ा : अर्थी उठने के समय ; इज़्हारे-अदावत : शत्रुता का उद्घोष, स्वीकार ।

गुरुवार, 17 मार्च 2016

मलाल किसका है ...

रुख़  पे  रौशन जलाल  किसका  है
ये:  मुबारक  ख़याल   किसका  है

कर  गया  रूह  को  मुअत्तर   जो
वो:  गुलाबी  रुमाल  किसका  है

है  ज़मीं  पर  बहार  फागुन  की
आस्मां  पर  गुलाल  किसका  है

दोस्तों  को  दुआ  न  दे  पाए
इस  क़दर  तंग  हाल  किसका  है

कल  तलक  थी  शबाब  पर  महफ़िल
आज  घर  में  मलाल  किसका  है

मुश्किलों  में  नसीबवाले  हैं 
इस  बदल  में  कमाल  किसका  है

आशिक़ी  में  उरूज  है  दिल  का
आजिज़ी   में   जवाल  किसका  है  ?

                                                                       (2016)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  रुख़ :मुखाकृति; रौशन: उज्ज्वल, प्रकाशित; जलाल : तेज, प्रताप; मुबारक : शुभ, प्रसन्नता दायक; रूह : आत्मा; मुअत्तर: सुगंधित; शबाब :यौवन; महफ़िल: सभा, गोष्ठी; मलाल : खेद, अवसाद; नसीब वाले : भाग्यवान ; बदल: परिवर्त्तन; कमाल :चमत्कार; आशिक़ी :आवेगपूर्ण प्रेम; उरूज़ : उत्कर्ष; आजिज़ी :असहायता, भावनात्मक पतन।

बुधवार, 16 मार्च 2016

मौत की खाई ...

पढ़  लिया  लिख  लिया  सो  गए
ख़्वाब  में    वो:  ख़ुदा     हो   गए

कौन  हैं     लोग    जो    देस   में
नफ़्रतों     की  फ़सल     बो  गए

मौत  की     खाई  में     जा  गिरे
क़र्ज़  की     राह  पर     जो  गए

एक  दहक़ान     ही  तो       मरा
चार  पैसे          रखे       रो  गए

दाल  दिल    पर  हुई    बार   यूं
गंदुमी     ख़्वाब  भी     खो  गए

बज़्म  में      तीरगी      छा  गई
आप  ख़ुश  हैं  कि  हम  तो  गए

बंट  रही     थी    नियाज़े-करम
है  गवारा      जिन्हें      वो  गए  !

                                                                         (2016)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: नफ़्रतों: घृणाओं ; क़र्ज़: ऋण ; दहक़ान: कृषक ; गंदुमी: गेहूं के वर्ण वाले ; बज़्म : सभा, गोष्ठी ; तीरगी : अंधकार ; 
नियाज़े-करम : मान्यता पूरी होने पर बांटी जाने वाली भिक्षा, भंडारा; गवारा : स्वीकार ।


रविवार, 13 मार्च 2016

कुछ और इशारा ...

फूलों  के  शहर  में  दीवाने  कांटों  में  गुज़ारा  करते  हैं 
दिल  हार  के  जीता  करते  हैं  जग  जीत  के  हारा  करते  हैं

हम  अह् ले-सुख़न  हर  क़ीमत  पर  करते  हैं  अदा  हक़  जीने  का
हर  वक़्त  बदलती  दुनिया  की  तस्वीर  संवारा  करते  हैं

कहते  हैं  कि  वो:  ही  ख़ालिक़  हैं  तख़्लीक़  करेंगे  जन्नत  की
हालात  मगर  इस  गुलशन  के  कुछ  और  इशारा  करते  हैं

हर  मौसम  से  लड़ते  आए  चे  बर्फ़  जली  चे  आग  जमी
वैसे  भी  गुज़ारा  करते  थे  ऐसे  भी  गुज़ारा  करते  हैं

हम  जिस  मौसम  के  आशिक़  हैं  वो  भी  बस  आने  वाला  है
ऐ  बादे-सबा !  तेरे  संग  हम  भी  तो  राह  निहारा  करते  हैं

इक  उम्र  मिली  है  ख़ुश  रह कर  दो-चार  घड़ी  जी  लेने दें
कमबख़्त  फ़रिश्ते  गलियों  में  दिन-रात  इशारा  करते  हैं

तासीरे-लहू  ये:  कहती  है  रुकना  है  रग़ों  में  नामुमकिन
मंसूर  सही  लेकिन  कब  हम  सौ  ज़ुल्म  गवारा  करते  हैं !

                                                                                                                     (2016)

                                                                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ :

           

बुधवार, 9 मार्च 2016

दिलबरी का मज़ा ...

हम  जो   भूले  से   मुस्कुराते  हैं
आप  दानिश्ता  दिल  जलाते  हैं

दिख  रहा  है  ख़ुलूस  आंखों  में
देखिए,   कब   क़रीब   आते  हैं

दिलबरी  का  मज़ा  यही  तो  है
दोस्त  ही  रात-दिन  सताते  हैं

दुश्मनों  की  निगाह  के  सदक़े
आजकल  रोज़   घर  बुलाते  हैं

वो  जो  सरकार  के  भरोसे  हैं
हर  क़दम  पर  फ़रेब  खाते  हैं

शोहद:-ए-शाह  के  बयां  सुन  कर
शह्र  दर  शह्र    कांप    जाते  हैं

आस्मां  भी  उन्हीं  की  सुनता  है
आस्मां  सर  पे  जो    उठाते  हैं  !

                                                                         (2016)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दानिश्ता: जान-बूझ कर; ख़ुलूस: अपनत्व ; दिलबरी: मनमोहक होना ; सदक़े : बलिहारी ; फ़रेब: छल ; शोहद:-ए-शाह: राजा के समर्थक, उपद्रवी ।

सोमवार, 7 मार्च 2016

नूर का इन्तेख़ाब ...

नूर  का    इन्तेख़ाब   कर  आए
क़ैस  का  घर  ख़राब  कर आए

चांद  की  शबनमी  शुआओं  को
छेड़  कर  सुर्ख़  आब  कर  आए

तोड़  डाला  हिजाब  महफ़िल  में
ज़ुल्म  वो:  बे-हिसाब  कर  आए

शाह जब मुल्क से मुख़ातिब  था
हम  उसे    बे-नक़ाब   कर  आए

घर   जला   कर  रहे-रिआया  में
ज़ीस्त्  को  कामयाब  कर  आए

ख़ुल्द  की   ख़ू  बिगाड़  दी  हमने
आशिक़ी  का   सवाब  कर  आए

काट  कर सर  रखा  मुसल्ले  पर
' लाह  को   लाजवाब   कर  आए  !

                                                                    (2016 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नूर: प्रकाश; इन्तेख़ाब: चयन; क़ैस: लैला (यहां, काली रात) का प्रेमी, मजनूं ; शबनमी : ओस-जैसी; शुआओं: किरणों; 
सुर्ख़ आब : रक्तिम, लज्जा से लाल; हिजाब : मुखावरण ; महफ़िल : भरी सभा; ज़ुल्म : अन्याय ; मुल्क : देश, लोक; मुख़ातिब: संबोधित ; बे-नक़ाब : अनावृत ; रहे-रिआया: समाज के मार्ग, सामाजिक हित का मार्ग; ज़ीस्त : जीवन ; कामयाब : सफल ; ख़ुल्द:स्वर्ग; 
ख़ू : विशिष्टता, छबि; आशिक़ी : उत्कट प्रेम ; सवाब : पुण्य ; मुसल्ला : जाएनमाज़, नमाज़ पढ़ने के लिए बिछाया जाने वाला वस्त्र;
 'लाह : अल्लाह, विधाता, ब्रह्म ।

रविवार, 6 मार्च 2016

बंदगी का गुनाह...

आज  बिछड़े  ख़याल  घर  आए
अनगिनत  ज़र्द  ख़्वाब  बर  आए

गुमशुदा  यार  गुमशुदा  यादें
लौट  आए  कि  ज़ख़्म  भर  आए

लोग  किरदार  पर  करेंगे  शक़
आप  गर  होश  में  नज़र  आए

काश ! दिल  हो  उदास  महफ़िल  में
काश ! फिर  आपकी  ख़बर  आए

क्या  हुआ  शाह  के  इरादों  का
रिज़्क़  आए  न  मालो-ज़र  आए

ज़ुल्म  की  इंतेहा  जहां  देखी 
हम  वहीं  इंक़लाब  कर  आए

इश्क़  कर  लीजिए  कि  क्यूं  नाहक़
बंदगी  का  गुनाह  सर  आए  !

                                                                                (2016)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : ख़याल:विचार; ज़र्द: पीले पड़े, मुरझाए हुए ; बर आए: साकार हुए ; गुमशुदा: खोए हुए; ज़ख़्म: घाव ; किरदार: चरित्र ; शक़ : संदेह; गर : यदि; रिज़्क़ : आजीविका, नौकरी; मालो-ज़र : धन-संपत्ति; ज़ुल्म : अन्याय, अत्याचार ; इंक़लाब : क्रांति ; नाहक़ : व्यर्थ, निरर्थक, अकारण ; बंदगी : भक्ति ; गुनाह : अपराध ।

शनिवार, 5 मार्च 2016

ज़ेरे-ख़ाक कर दे !

ज़ुबां-ए-होश  को  बेबाक  कर  दे
सितमगर ! तू  गरेबां  चाक  कर  दे

करिश्मा  यह  भी  करके  देख  ले  तू
कि   मेरी  रूह  ज़ेरे-ख़ाक  कर  दे

बग़ावत  बढ़  रही  है  नौजवां  में
सज़ा को  और  इब्रतनाक  कर  दे

ख़ुशी  को  ख़ूबतर  कर  के  बता  दे
ख़ुदी  को  और  ख़ुशपोशाक  कर  दे

कलेजा  फट  पड़ेगा  ज़ालिमों  का
लहू  को  तू  जो  आतशनाक  कर  दे

सियासत  की  सियाही  यूं  न  फैले
कि  हर  इंसान  को  चालाक  कर  दे

मेरी  आवारगी  में  वो  असर  है
कि  हर  आबो-हवा  को  पाक  कर  दे

वुज़ू  कर  के  अनलहक़  पढ़  रहे  हैं
चले  बस  तो  हमें  नापाक  कर  दे  !

                                                                      (2016)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : ज़ुबां-ए-होश : संयमित, विवेकपूर्ण भाषा; बेबाक : भय-मुक्त, शिष्टाचार के बंधन से मुक्त; सितमगर : अत्याचारी ; गरेबां : गला; चाक : चीर (ना); करिश्मा:चमत्कार; रूह : आत्मा; ज़ेरे-ख़ाक :मिट्टी के नीचे (दबाना); बग़ावत: विद्रोह की भावना; नौजवां : युवा वर्ग; इब्रतनाक : भयानक; ख़ूबतर: अधिक श्रेष्ठ; ख़ुदी : आत्म-चेतना; ख़ुशपोशाक: सुंदर वस्त्र-भूषित; ज़ालिमों: अत्याचारियों; लहू : रक्त; आतशनाक : अग्नि-वर्णी, तप्त लौह के समान; सियासत : राजनीति; सियाही : कालिमा; चालाक : चतुर; आवारगी : यायावरी ; असर : प्रभाव; आबो-हवा : पर्यावरण ; वुज़ू : देह-शुद्धि; अनलहक़ : 'अहं ब्रह्मास्मि'; नापाक : अपवित्र ।

गुरुवार, 3 मार्च 2016

दिल साफ़ करना ...

अदालत  सीख  ले  इंसाफ़  करना
गुनाहे-बेगुनाही       माफ़   करना

महारत  है  इसी  में  आपकी  क्या
किसी  के  दर्द  को  अज़्आफ़  करना

हुकूमत  जाहिलों  की  ख़ाक  जाने
अदीबों  की  तरह  दिल  साफ़  करना

तिजारत  चाहती  है  बस्तियों  का
बदल  कर  नाम  कोहे क़ाफ़  करना

हज़ारों    दोस्तों  ने    तय  किया  है
हमारे  नाम   ग़म   औक़ाफ़  करना

किसी  दिन  आइए  तो  हम सिखा  दें
नफ़स  को   ख़ुश्बुए-अत्राफ़   करना

हुनर     सीखे     हज़ारों    आपने  यूं
न  सीखा  रूह  को  शफ़्फ़ाफ़  करना !

                                                                           (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : इंसाफ़ : न्याय; गुनाहे-बेगुनाही: निरपराध होने का अपराध; महारत : प्रवीणता; अज़्आफ़ : दो गुना; हुकूमत: शासन, सरकार; जाहिलों : जड़-बुद्धि व्यक्तियों ; ख़ाक : धूलि, यहां अन्यार्थ, अयोग्यता ; अदीबों : साहित्यकारों, सृजन-कर्मियों; तिजारत : व्यावसायिकता ; कोहे क़ाफ़ : काकेशिया का एक पर्वत, जहां का सौंदर्य स्वर्ग-समान माना जाता है; ग़म : दुःख, पीड़ाएं ; औक़ाफ़ : सार्वजनिक उद्देश्य हेतु दान करना ; नफ़स : श्वांस ; ख़ुश्बुए-अत्राफ़ : हर दिशा में फैल जाने वाली सुगंध; हुनर : कौशल ; रूह : आत्मा, मन ; शफ़्फ़ाफ़: निर्मल।

मंगलवार, 1 मार्च 2016

जिसका मेयार अर्श...

पत्ते  बिखर  रहे  हैं  हवा  के  फ़ितूर  में
ख़ामोश  है  दरख़्त  अना  के  सुरूर  में

रिश्ते  निबाहने  का  सही  वक़्त  है  यही
मौसम  निकल  न  जाए  कहीं  पास-दूर  में

बेहतर  है  कोई  और  नगीना  तराशिए
अब  वो:  चमक  कहां  है  मियां ! कोहेनूर  में

पर्दे  पड़े  हैं  शैख़ो-बरहमन  की  अक़्ल  पर
कंकड़  गिरा  रहे  हैं  मेरे  नोशो-ख़ूर  में

तेरा  निज़ाम  है  तो  चढ़ा  दे  सलीब  पर
लेकिन ये:  साफ़  कर  कि  भला  किस  क़ुसूर  में

दर्या-ए-दिल  को  ज़र्फ़े-समंदर  दिखा  ज़रा
नाहक़  उछल  रहा  है  ख़ुदी  के  ग़ुरूर  में

जिसका  मेयार  अर्श  बताया  गया  हमें
सज्दागुज़ार  है  वो:  हमारे  हुज़ूर  में  !

                                                                                                 (2016)

                                                                                         -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़ितूर: उपद्रव; दरख़्त :वृक्ष; अना:अहंकार; सुरूर : मद; नगीना : रत्न ; तराशिए : काट-छांट करके आकार दीजिए; कोहेनूर : विश्व-प्रसिद्ध हीरा, 'प्रकाश-पर्वत'; पर्दे:आवरण; शैख़ो-बरहमन: मौलवी एवं ब्राह्मण; अक़्ल : बुद्धि, विवेक; नोशो-ख़ूर : पीने-खाने के पदार्थ; निज़ाम: राज, सरकार; सलीब : सूली; क़ुसूर: अपराध; दर्या-ए-दिल : हृदय-नद; ज़र्फ़े-समंदर : समुद्र का गांभीर्य, धैर्य; नाहक़ : निरर्थक, अनुचित रूप से; ख़ुदी : अस्तित्व-बोध; ग़ुरूर : अभिमान; मेयार: स्तर, उच्च-स्तर; अर्श : आकाश; सज्दागुज़ार : दंडवत प्रणाम की मुद्र में; हुज़ूर : दरबार ।