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बुधवार, 17 सितंबर 2014

ताज ज़ेरे-कदम नहीं होता !

ज़ुल्म  नालों  से  कम  नहीं  होता
बुज़दिलों  पर  करम  नहीं  होता

जो  रिआया  में  दम  नहीं  होता
ताज    ज़ेरे-कदम     नहीं  होता 

बढ़  रहे  हैं  सितम  हुकूमत  के
हौसला  है  कि  कम  नहीं  होता

बात  कहते   अगर   सलीक़े  से
सामईं  को    भरम   नहीं  होता

शाह  से    आप    डर  गए  होंगे 
सर  हमारा  तो  ख़म  नहीं  होता

चांद  रौशन  रहे  कि  बुझ  जाए
दाग़े-दामान    कम   नहीं  होता

वस्ल  में  नफ़्स  थम  गई  वर्ना
ख़ुदकुशी  का  वहम  नहीं  होता

रोज़  सज्दे  करे  नज़र  फिर  भी
वो  मिरा   हमक़दम   नहीं  होता 

जान     किरदार  में   नहीं  आती
गर  ख़ुदा   बे-रहम   नहीं  होता ! 

                                                             (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़ुल्म: अन्याय; नालों: आर्त्तनादों; बुज़दिलों: कायरों; करम: (ईश्वरीय) कृपा; रिआया: प्रजा, नागरिक; दम: शक्ति; ताज: राजमुकुट; ज़ेरे-कदम: पांव के नीचे; सितम: अत्याचार;  हुकूमत: शासन, सरकार; हौसला: उत्साह; सलीक़े से: व्यवस्थित रूप से; सामईं: श्रोता-गण; रौशन: प्रकाशित; दाग़े-दामान: उपरिवस्त्र के पल्लू या हृदय-स्थल पर लगा कलंक; वस्ल: मिलन; नफ़्स: सांस; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; वहम: संदेह; सज्दे: शीश भूमि पर झुका कर किया जाने वाला प्रणाम; हमक़दम: सहयात्री; किरदार: चरित्र; गर: यदि; बे-रहम: निर्दय।