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रविवार, 22 अप्रैल 2018

बग़ावत का सैलाब ...

मोहसिनों   की    आह    बेपर्दा  न  हो
शर्म  से    मर  जाएं   हम  ऐसा  न  हो

इश्क़  का  इल्ज़ाम  हम  पर  ही  सही
तू   अगर    ऐ  दोस्त     शर्मिंदा  न  हो

ख़ाक   ऐसी  ज़ीस्त  पर    के:  ग़ैर  के
दर्द  का   एहसास  तक   ज़िंदा  न  हो

बेबसी  से     आस्मां   तक       रो  पड़े
ज़ुल्म    नन्ही  जान  पर   इतना  न  हो

अब     बग़ावत  का    उठे  सैलाब  वोः
जो  कभी     तारीख़   ने    देखा  न  हो

ऐहतरामे-नूर         यूं        कर  देखिए
सर  झुका  हो  और   बा-सज्दा  न  हो

कोई  तो    रक्खे  हमें    दिल  में  कहीं
आख़िरत  का  वक़्त  यूं  ज़ाया   न   हो !

                                                                            (2018)

                                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मोहसिनों: कृपालु जन; बेपर्दा: प्रकट, अनावृत्त; इल्ज़ाम: आरोप; शर्मिंदा: लज्जित; ख़ाक: धूल; ज़ीस्त: जीवन; ग़ैर: अन्य; एहसास: अनुभूति; बग़ावत: विद्रोह; सैलाब: बाढ़; तारीख़: इतिहास; बेबसी: विवशता; आस्मां: नियति; ज़ुल्म: अन्याय, अत्याचार; ऐहतरामे-नूर: (ईश्वरीय) प्रकाश का सम्मान, सम्बोधि का सम्मान; बा-सज्दा: श्रद्धावनत; आख़िरत: अंतिम समय; ज़ाया: व्यर्थ।