मोहसिनों की आह बेपर्दा न हो
शर्म से मर जाएं हम ऐसा न हो
इश्क़ का इल्ज़ाम हम पर ही सही
तू अगर ऐ दोस्त शर्मिंदा न हो
ख़ाक ऐसी ज़ीस्त पर के: ग़ैर के
दर्द का एहसास तक ज़िंदा न हो
बेबसी से आस्मां तक रो पड़े
ज़ुल्म नन्ही जान पर इतना न हो
अब बग़ावत का उठे सैलाब वोः
जो कभी तारीख़ ने देखा न हो
ऐहतरामे-नूर यूं कर देखिए
सर झुका हो और बा-सज्दा न हो
कोई तो रक्खे हमें दिल में कहीं
आख़िरत का वक़्त यूं ज़ाया न हो !
(2018)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मोहसिनों: कृपालु जन; बेपर्दा: प्रकट, अनावृत्त; इल्ज़ाम: आरोप; शर्मिंदा: लज्जित; ख़ाक: धूल; ज़ीस्त: जीवन; ग़ैर: अन्य; एहसास: अनुभूति; बग़ावत: विद्रोह; सैलाब: बाढ़; तारीख़: इतिहास; बेबसी: विवशता; आस्मां: नियति; ज़ुल्म: अन्याय, अत्याचार; ऐहतरामे-नूर: (ईश्वरीय) प्रकाश का सम्मान, सम्बोधि का सम्मान; बा-सज्दा: श्रद्धावनत; आख़िरत: अंतिम समय; ज़ाया: व्यर्थ।
शर्म से मर जाएं हम ऐसा न हो
इश्क़ का इल्ज़ाम हम पर ही सही
तू अगर ऐ दोस्त शर्मिंदा न हो
ख़ाक ऐसी ज़ीस्त पर के: ग़ैर के
दर्द का एहसास तक ज़िंदा न हो
बेबसी से आस्मां तक रो पड़े
ज़ुल्म नन्ही जान पर इतना न हो
अब बग़ावत का उठे सैलाब वोः
जो कभी तारीख़ ने देखा न हो
ऐहतरामे-नूर यूं कर देखिए
सर झुका हो और बा-सज्दा न हो
कोई तो रक्खे हमें दिल में कहीं
आख़िरत का वक़्त यूं ज़ाया न हो !
(2018)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मोहसिनों: कृपालु जन; बेपर्दा: प्रकट, अनावृत्त; इल्ज़ाम: आरोप; शर्मिंदा: लज्जित; ख़ाक: धूल; ज़ीस्त: जीवन; ग़ैर: अन्य; एहसास: अनुभूति; बग़ावत: विद्रोह; सैलाब: बाढ़; तारीख़: इतिहास; बेबसी: विवशता; आस्मां: नियति; ज़ुल्म: अन्याय, अत्याचार; ऐहतरामे-नूर: (ईश्वरीय) प्रकाश का सम्मान, सम्बोधि का सम्मान; बा-सज्दा: श्रद्धावनत; आख़िरत: अंतिम समय; ज़ाया: व्यर्थ।