सब्ज़ गलियां दिखा रहा है मुझे
क्यूं ख़ुदा आज़मा रहा है मुझे
काश! हमदम कोई क़रीब रहे
सर्द मौसम सता रहा है मुझे
शौक़-ए-तन्हाई फिर हुआ दुश्मन
अंजुमन से उठा रहा है मुझे
ग़मगुसारो मुझे मुआफ़ करो
फिर नया ग़म बुला रहा है मुझे
साक़ि-ए-शीश:बाज़ हंस-हंस के
उंगलियों पे नचा रहा है मुझे
दे रहा है सिला मुहब्बत का
वो: नज़र से गिरा रहा है मुझे
हद है ज़ाहिद की अक़्ल तो देखो
जाम पीना सिखा रहा है मुझे !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: सब्ज़ गलियां: सुखी नगर की गलियां, सुख के स्वप्न; शौक़-ए-तन्हाई: एकांतवास का व्यसन; अंजुमन: गोष्ठी, मित्र-समूह; ग़मगुसारो: ( बहुव.): दुःख में सांत्वना देने वाले; साक़ि-ए-शीश:बाज़: बोतलों को उंगलियों पर नचा कर मद्य परोसने वाला;
सिला: प्रतिदान; ज़ाहिद: संयमी, सन्यासी।
क्यूं ख़ुदा आज़मा रहा है मुझे
काश! हमदम कोई क़रीब रहे
सर्द मौसम सता रहा है मुझे
शौक़-ए-तन्हाई फिर हुआ दुश्मन
अंजुमन से उठा रहा है मुझे
ग़मगुसारो मुझे मुआफ़ करो
फिर नया ग़म बुला रहा है मुझे
साक़ि-ए-शीश:बाज़ हंस-हंस के
उंगलियों पे नचा रहा है मुझे
दे रहा है सिला मुहब्बत का
वो: नज़र से गिरा रहा है मुझे
हद है ज़ाहिद की अक़्ल तो देखो
जाम पीना सिखा रहा है मुझे !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: सब्ज़ गलियां: सुखी नगर की गलियां, सुख के स्वप्न; शौक़-ए-तन्हाई: एकांतवास का व्यसन; अंजुमन: गोष्ठी, मित्र-समूह; ग़मगुसारो: ( बहुव.): दुःख में सांत्वना देने वाले; साक़ि-ए-शीश:बाज़: बोतलों को उंगलियों पर नचा कर मद्य परोसने वाला;
सिला: प्रतिदान; ज़ाहिद: संयमी, सन्यासी।