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शनिवार, 25 मई 2013

ख़ुदा आज़मा रहा है !

सब्ज़   गलियां  दिखा  रहा  है   मुझे
क्यूं   ख़ुदा   आज़मा    रहा  है   मुझे

काश!   हमदम    कोई    क़रीब  रहे
सर्द   मौसम    सता   रहा   है   मुझे

शौक़-ए-तन्हाई  फिर  हुआ  दुश्मन
अंजुमन   से    उठा    रहा   है   मुझे

ग़मगुसारो     मुझे    मुआफ़    करो
फिर  नया  ग़म  बुला  रहा  है  मुझे

साक़ि-ए-शीश:बाज़    हंस-हंस   के
उंगलियों   पे   नचा   रहा   है   मुझे

दे   रहा   है    सिला    मुहब्बत  का
वो:   नज़र   से   गिरा  रहा  है  मुझे

हद  है  ज़ाहिद की  अक़्ल  तो  देखो
जाम   पीना   सिखा   रहा  है   मुझे !

                                                     ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सब्ज़  गलियां: सुखी नगर की गलियां, सुख के स्वप्न; शौक़-ए-तन्हाई: एकांतवास का व्यसन; अंजुमन: गोष्ठी, मित्र-समूह;            ग़मगुसारो: ( बहुव.): दुःख में सांत्वना देने वाले; साक़ि-ए-शीश:बाज़: बोतलों को उंगलियों पर नचा कर मद्य परोसने वाला; 
           सिला: प्रतिदान; ज़ाहिद: संयमी, सन्यासी।