आज ख़ामोश रहें भी तो क्या
और दिल खोल कर कहें भी तो क्या ?
आपको तो रहम नहीं आता
हम अगर दर्द सहें तो भी क्या
क़त्ल करके हुज़ूर हंसते हैं
भीड़ में अश्क बहें भी तो क्या
ज़ुल्म तारीख़ में जगह लेंगे
शाह के क़स्र ढहें भी तो क्या
मौत हदिया वसूल कर लेगी
क़ैद में ज़ीस्त की रहें भी तो क्या ?
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रहम: दया; हुज़ूर: श्रीमान; अश्क: आंसू; ज़ुल्म: अत्याचार; क़स्र: महल; क़ैद: बंधन; ज़ीस्त: जीवन।
और दिल खोल कर कहें भी तो क्या ?
आपको तो रहम नहीं आता
हम अगर दर्द सहें तो भी क्या
क़त्ल करके हुज़ूर हंसते हैं
भीड़ में अश्क बहें भी तो क्या
ज़ुल्म तारीख़ में जगह लेंगे
शाह के क़स्र ढहें भी तो क्या
मौत हदिया वसूल कर लेगी
क़ैद में ज़ीस्त की रहें भी तो क्या ?
(2017)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रहम: दया; हुज़ूर: श्रीमान; अश्क: आंसू; ज़ुल्म: अत्याचार; क़स्र: महल; क़ैद: बंधन; ज़ीस्त: जीवन।