मेरे बेज़ार होने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
तड़पने और रोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
हमीं नादां थे जो तुमको बनाया नाख़ुदा अपना
मेरी कश्ती डुबोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
लगी है अब नज़र जिसपे तुम्हारी वो: मेरा दिल है
मगर नश्तर चुभोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
तुम्हारे हाथ सौंपी थीं चमन की क्यारियां हमने
वहां बदख़्वाब बोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
लगा है हमपे अब इल्ज़ाम तुमसे बेवफ़ाई का
ये: बोझा दिल पे ढोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
तुम्हारे साथ चलते हैं हज़ारों चाहने वाले
मेरे होने न होने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
हमीं को दर्द सहना है जहाँ की संगशारी का
हमारे होश खोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: बेज़ार: व्याकुल; नादां: अबोध; नाख़ुदा: नाविक; नश्तर: चीरा; बदख़्वाब: दु:स्वप्न; संगशारी: पत्थर मार-मार कर
मार डालने का दण्ड।
तड़पने और रोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
हमीं नादां थे जो तुमको बनाया नाख़ुदा अपना
मेरी कश्ती डुबोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
लगी है अब नज़र जिसपे तुम्हारी वो: मेरा दिल है
मगर नश्तर चुभोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
तुम्हारे हाथ सौंपी थीं चमन की क्यारियां हमने
वहां बदख़्वाब बोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
लगा है हमपे अब इल्ज़ाम तुमसे बेवफ़ाई का
ये: बोझा दिल पे ढोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
तुम्हारे साथ चलते हैं हज़ारों चाहने वाले
मेरे होने न होने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है
हमीं को दर्द सहना है जहाँ की संगशारी का
हमारे होश खोने से तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: बेज़ार: व्याकुल; नादां: अबोध; नाख़ुदा: नाविक; नश्तर: चीरा; बदख़्वाब: दु:स्वप्न; संगशारी: पत्थर मार-मार कर
मार डालने का दण्ड।