है अगर तू कहीं तो नज़र आ कभी
दोस्तों की तरह मेरे घर आ कभी
ईद के ईद शाने मिले भी तो क्या
हस्ब-ए-मामूल शाम-ओ-सहर आ कभी
यूँ हमें तो ग़म-ए-दिल से फ़ुर्सत कहाँ
तू ही मसरूफ़ियत छोड़ कर आ कभी
पूछते हैं सभी तू मेरा कौन है
मेरी ख़ातिर ज़मीं पे उतर आ कभी
जाम-ए-नूर-ए-मुजस्सम पिलाएंगे हम
अपनी हिर्स-ओ-हवस छोड़ कर आ कभी।
(ईद-उल-फ़ित्र ,2011)
-सुरेश स्वप्निल