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गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

ख़ुदा मेह्रबां है...!


दिल  बहाने   सुना   नहीं  करता
ख़्वाब   दिन  में  बुना  नहीं   करता

संगदिल  ही  सही  सनम,  लेकिन
क़त्ल  सोचे  बिना  नहीं   करता

एक  सफ़   में  नमाज़   पढ़ता  है
राह  में  सामना  नहीं   करता

कौन   उसका  ग़ुरूर  तोड़ेगा
जो   हमें  आशना  नहीं  करता

ग़ैर  के   ग़म   जिन्हें   सताते  हैं
वक़्त  उनको  फ़ना   नहीं  करता

दिल  अलहदा  दिमाग़  रखता  है
दोस्त-दुश्मन  चुना  नहीं  करता

शाह  क़ातिल,  ख़ुदा   मेह्रबां  है
जुर्म  उसके  गिना  नहीं  करता !

ताज  हो  या  मेयार  ग़ालिब  का
एक  दिन  में  बना  नहीं  करता

शायरों  से  ख़ुदा  परेशां  है
पर,  कहा  अनसुना  नहीं  करता !
                                                            (2014)

                                                    -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: संगदिल: पाषाण-हृदय; सफ़: पंक्ति; ग़ुरूर: गर्व, अहंकार; आशना: मित्र, संगी; ग़ैर: पराया; ग़म: दुःख; फ़ना: नष्ट; 
अलहदा: भिन्न, अलग; क़ातिल: हत्यारा; मेह्रबां: कृपालु; जुर्म: अपराध। 

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