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रविवार, 21 अगस्त 2016

... सख़ी की तलाश में

सदमात  लाज़िमी  हैं  ख़ुशी  की  तलाश  में
हमने  भी  ग़म  सहे  हैं  किसी  की  तलाश  में

वादे  भुला-भुला  के  तुम्हें  क्या  मिला  कहो
अख़बार  बंट  रहे  हैं  तुम्हारी  तलाश  में

रौशन  थी  जिनके  दम  से  कभी  महफ़िले-मिज़ाह
वो  भी  हैं  अश्कबार  हंसी  की  तलाश  में

इक  चांद  ही  नहीं  है  मुहब्बत  में  दर-ब-दर
गर्दिश  में  है  ज़मीं  भी  ख़ुदी  की  तलाश  में

मुमकिन  है  आज  कोई  मुरादों  की  भीख  दे
कासा  लिए  खड़े  हैं  सख़ी  की  तलाश  में

शिद्दत  ने  तिश्नगी  की  समंदर  बना  दिया
सहरा  झुलस   रहा  था  नमी  की  तलाश  में

ख़ुश  थे  हमें  वो  ख़ुल्द  से  बाहर  निकाल  कर
अब  तूर  पर  खड़े  हैं  हमारी  तलाश  में  !

                                                                                                 (2016)

                                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थः  सदमात: आघात (बहुव.); लाज़िमी: अपरिहार्य, स्वाभाविक; रौशन: प्रकाशमान; महफ़िले-मिज़ाह: हास्य-व्यंग्य की गोष्ठी; अश्कबार: आंसू भरे; दर-ब-दर: एक द्वार से दूसरे द्वार, गली-गली; मुमकिन: संभव; मुरादों: अभिलाषाओं; कासा: भिक्षा-पात्र; सख़ी: दानी, उदारमना; शिद्दत: तीव्रता; तिश्नगी: सुधा, प्यास; समंदर: सागर; सहरा: मरुस्थल; ख़ुल्द: स्वर्ग; तूर: एक मिथकीय पर्वत जहां ख़ुदा के प्रकट होने का मिथक है।