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शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

हू ब हू क़िस्से ...

जंगजू  ख़्वाब  जंगजू  क़िस्से
लो  मियां  हो  गए  शुरू  क़िस्से

सुस्त  रफ़्तार  थी  हक़ीक़त  की
बन  गए  आज  जुस्तजू  क़िस्से

चंद  तब्दीलियां  ज़रूरी  हैं
कौन  दोहराए  हू  ब  हू  क़िस्से

नंग(ए)तहज़ीब  का  ज़माना  है
तो  उड़ें  क्यूं  न  चारसू  क़िस्से

काश ! रहती  ज़ुबान  क़ाबू  में
ले  गए  घर  की  आबरू  क़िस्से

कोई  ख़ामोशियां  बचा  रक्खे
पी  चुके  हैं  बहुत  लहू  क़िस्से


बाग़े  जन्नत  में  ख़ौफ़  तारी  है
कर  गए  क़त्ल  रंगो-बू  किस्से  !

                                                             (2016)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जंगजू : युद्धोन्मादी, आक्रामक; क़िस्से : आख्यान, कथा, मिथक; रफ़्तार : गति; हक़ीक़त : यथार्थ; जुस्तजू: खोज; तब्दीलियां : परिवर्त्तन; हू ब हू : यथावत; नंग(ए)तहज़ीब : सभ्यता का अभाव; चारसू : चारों ओर; क़ाबू : नियंत्रण; आबरू : सम्मान; ख़ामोशियां : मौन, शांति; लहू : रक्त; बाग़े  जन्नत : स्वर्ग का उद्यान; ख़ौफ़ : भय, आतंक; तारी : व्याप्त ।


गुरुवार, 29 सितंबर 2016

शो'अरा की नियाज़

वो  तसव्वुफ़  पे  वाज़  करते  हैं
एहतरामे - अयाज़       करते  हैं

दिल  किसी  काम  आए  तो  रख  लें
हम     कहां    ऐतराज़  करते  हैं

सिर्फ़   इमदाद   ही     नहीं  देते
ज़ुल्म  भी   दिलनवाज़  करते  हैं

मुफ़्त  इस्लाह    छोड़िए   साहब
नौजवां   कब  लिहाज़  करते  हैं

शाह   दिलदार  हो  गए  जब  से 
शो'अरा   की   नियाज़  करते  हैं

आड़  ले  कर  सफ़ेद  दाढ़ी  की
बदज़नी    सरफ़राज़    करते  हैं

बाग़े-रिज़्वां  में  बैठ  कर  मोमिन
आशिक़ी  का   रियाज़   करते  हैं  !

                                                                  (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : तसव्वुफ़ : सूफ़ी मत, मानव से प्रेम के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति संभव मानने वाला पंथ, सृष्टि की सभी रचनाओं में ईश्वर का वास मानने वाला संप्रदाय; वाज़ : प्रवचन, उपदेश; एहतरामे-अयाज़ : अयाज़ का सम्मान, अयाज़ सोमनाथ मंदिर को ध्वस्त करने वाले सुल्तान महमूद ग़ज़नवी का दास था जिसके सौंदर्य पर मुग्ध हो कर महमूद ने उसे दासता से मुक्त कर अपनी मृत्यु तक साथ में रखा; ऐतराज़ : आपत्ति; इस्लाह : सुझाव देना; लिहाज़ : आदर, मर्यादा का ध्यान रखना; दिलदार : उदार; शो'अरा : शायरों; नियाज़ : मृतकों की आत्मा की शांति के लिए दिया जाने वाला दरिद्र भोज, भंडारा; बदज़नी : कुकर्म; सरफ़राज़ ; प्रतिष्ठित जन; बाग़े-रिज़्वां : जन्नत या स्वर्ग का उद्यान, जिसकी रक्षा रिज़्वान नाम का रक्षक करता है; मोमिन : ईश्वर के प्रति आस्तिक; रियाज़: अभ्यास ।







मंगलवार, 27 सितंबर 2016

तेरा टूट जाना ....

मिज़ाजे  ज़माना  हमें  तोड़  देगा
तेरा  आज़माना  हमें  तोड़  देगा

निगाहें  मिलाना  ज़रूरी  नहीं  है
निगाहें  चुराना  हमें  तोड़  देगा

नज़र  में  बनाए  रखें  तय  जगह  पर
उठाना  गिराना  हमें  तोड़  देगा

ख़बर  है  हमें  तेरी  मस्रूफ़ियत  की
मगर  अब  बहाना  हमें  तोड़  देगा

सहारा  वो  बेशक़  न  दें  मुफ़लिसी  में
तमाशा  बनाना  हमें  तोड़  देगा

अगर  मश्क़  कम  है  तो  सीना  खुला  है
वफ़ा  पर  निशाना  हमें  तोड़  देगा

बग़ावत  के  ऐलान  से  ऐन  पहले
तेरा  टूट  जाना  हमें  तोड़  देगा  !

                                                                           (2016)

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मिज़ाजे ज़माना : समय/स्वभाव; मस्रूफ़ियत : व्यस्तता; मुफ़लिसी : कठिन समय, निर्धनता; मश्क़ : अभ्यास; वफ़ा : आस्था; बग़ावत : विद्रोह; ऐलान : घोषणा; ऐन : ठीक ।

सोमवार, 26 सितंबर 2016

बुरा मान बैठे ....

न  जाने  किसे  रहनुमा  मान  बैठे
फ़रेबे  ख़ुदा  को  ख़ुदा   मान  बैठे

मेरे  दर्द  को  वो  कभी  दर्द  समझे
कभी  दर्दे  दिल  की  दवा  मान  बैठे

तेरी  दिलनवाज़ी  से  मायूस  हो  कर
तेरे  दोस्त  हमसे  बुरा  मान  बैठे

मियां  जी  कहां  होश  रख  आए  अपना
अदा  को  सुबूते  वफ़ा  मान  बैठे

ग़ज़ब  हैं  तेरी  बज़्म  के  सब  सुख़नवर
कि  ख़ैरात  को  ही  जज़ा  मान  बैठे

उन्हें  भी  बहुत  फ़ैज़  हासिल  हुआ  जो
मेरे  मर्सिये  को  दुआ  मान  बैठे

वो  इंसाफ़  कैसे  किसी  का  करेगा
जो  मुजरिम  को  मुश्किलकुशा  मान  बैठे !

                                                                                 (2016)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ : रहनुमा: पाठ प्रदर्शक; फ़रेबे  ख़ुदा : ईश्वर का भ्रम; दर्दे दिल : मन की पीड़ा; दिलनवाज़ी : घनिष्ठ मैत्री; मायूस : निराश; अदा : अभिनय; सुबूते वफ़ा : आस्था का प्रमाण; ग़ज़ब : अद् भुत; बज़्म : सभा, गोष्ठी; सुख़नवर : साहित्यकार; ख़ैरात : भिक्षा; जज़ा : कर्म फल, प्रारब्ध; फ़ैज़ : यश; मर्सिया : शोक गीत, श्रद्धांजलि; दुआ : प्रार्थना; इंसाफ़ : न्याय; मुजरिम: अपराधी; मुश्किलकुशा: संकट मोचक।

शनिवार, 24 सितंबर 2016

हम ख़ुद बताएं

न  तुम  कुछ  कहोगे  न  हम  कुछ  कहेंगे
यहां  सिर्फ़  अह् ले-सितम   कुछ  कहेंगे

जहां  तुमको  एहसासे-तनहाई  होगा
वहां  मेरे  नक़्शे-क़दम  कुछ  कहेंगे

ज़ुबां  को  जहां  पर  इजाज़त  न  होगी
वहां  पर  तेरे  चश्मे-नम  कुछ  कहेंगे

अभी  आपका  वक़्त  है  आप  कहिए
किसी  रोज़  बीमारे-ग़म  कुछ  कहेंगे

न  कहिए  हमें  आप  सच  बोलने  को
य.कीं  कुछ  कहेगा  वहम  कुछ  कहेंगे

मुनासिब  नहीं  है  कि  हम  ख़ुद  बताएं
हमारे  चलन  पर  सनम  कुछ  कहेंगे

हमें  क्यूं  न  उमराह  की  हो  इजाज़त
कभी  इस  पे  शाहे-हरम  कुछ  कहेंगे ?

                                                                    (2016)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ ;





सोमवार, 19 सितंबर 2016

दिल पे बंदिश ...

दिल  पे  बंदिश  तो  कुछ  बह्र  की  है
कुछ  इनायत      तेरी       नज़्र  की  है

आज  साक़ी      सलाम      कर  बैठा
सारी    मस्ती     उसी     अस्र  की  है

कोई     इन्'.आम    क्या    हमें  देगा
फ़िक्र   अश्'आर   की   क़द्र  की  है

अर्श  ने     जो     हमें     पिलाया  था
रुख़  पे     रंगत    उसी  ज़ह्र  की  है

बर्क़   कब    घर   जला   सकी  मेरा
बात    सरकार   के    क़ह्र     की  है

गिर  गई    जो   ग़रीब  के    ग़म  से
छत     शहंशाह  के    क़स्र   की  है

शाह  की   रूह   स्याह  अब  भी  है
रौशनी     तो    चराग़े  क़ब्र     की है  !

                                                                   (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थः बंदिश : बंधन; बह्र : छंद,धड़कन; इनायत : कृपा; नज़्र : नज़र, दृष्टि; साक़ी : मदिरा पिलाने वाला; अस्र : प्रभाव; इन्'.आम : पुरस्कार; अश्'आर : शे'र का बहुवचन; अर्श: आकाश, देवता गण; रुख़ : मुख; ज़ह्र : ज़हर, विष; बर्क़: आकाशीय बिजली; क़ह्र : ;अत्याचार; ग़म: दुःख; क़स्र : महल;  रूह: आत्मा; स्याह: कृष्णवर्णी, काली; रौशनी: प्रकाश; चराग़े  क़ब्र ; समाधि पर रखा हुआ दीपक।



मंगलवार, 13 सितंबर 2016

अखर जाएगी ज़िंदगी ...

रेज़ा  रेज़ा  बिखर  जाएगी  ज़िंदगी
ग़म  न  हों  तो  ठहर  जाएगी  ज़िंदगी

चार  दिन  बेबसी  के  अगर  निभ  गए
पांचवें  दिन  संवर   जाएगी  ज़िंदगी

हिज्र  में  दोस्तों  की  दुआ  लीजिए
हर  भंवर  से  उबर  जाएगी  ज़िंदगी

भूख  से  तिफ़्ल  घर  में  तड़पते  मिलें
तो  सभी  को  अखर  जाएगी  ज़िंदगी

ख़ून  के  रंग  में  गर  बग़ावत  न  हो
दहशतों  में  गुज़र  जाएगी  ज़िंदगी

नाम  लेंगे  ख़ुदा  का  उसी  रोज़  हम
जब  ज़ेहन  से  उतर  जाएगी  ज़िंदगी

अब  जो  तूफ़ान  से  इश्क़  कर  ही  लिया
देख  लेंगे  जिधर  जाएगी  ज़िंदगी  !

                                                                            (2016)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : रेज़ा रेज़ा : टुकड़े टुकड़े; बेबसी : विवशता; हिज्र : वियोग; दुआ : शुभाकांक्षा; तिफ़्ल : शिशु, छोटे बच्चे; गर : यदि; बग़ावत : विद्रोह; दहशतों : आतंक, भयों; ज़ेहन : मस्तिष्क ।



शनिवार, 10 सितंबर 2016

बदल दे रूह ...

कहीं  ज़्यादा  कहीं  कम  है
जहां    देखो    वहीं   ग़म  है

तुम्हारे     सौ     ठिकाने   हैं
हमारा     कौन   हमदम  है

मरीज़े  इश्क़     की  ख़ातिर
न  पुरसा  है    न  मरहम  है

जहां       उम्मीद      है  तेरी
वहां  की   राह    पुरख़म  है

बुला  लो    या    चले  आओ
तुम्हारा      ख़ैरमक़्दम      है

वतन   की   नौजवानी      में
कहीं      पैबस्त     मातम  है

बग़ावत  कर   कि  रोता  रह
निज़ामे     ज़ुल्म    क़ायम  है

बदल  दे    रूह   'जन्नत'  की
अगर    शद्दाद   में    दम  है  !

                                                                   (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ठिकाने : संपर्क; हमदम: साथी, सहयात्री; मरीज़े-इश्क़ : प्रेम का रोगी, ख़ातिर : हेतु; पुरसा : सांत्वना; पुरख़म : मोड़ों से भरा, घुमावदार;   ख़ैरमक़्दम: स्वागत; नौजवानी: युवा वर्ग; पैबस्त: टंकित, बंधा हुआ; मातम:निराशा, शोक, अवसाद; बग़ावत : विद्रोह; निज़ामे-ज़ुल्म : अत्याचार का शासन; क़ायम: वर्त्तमान, स्थापित; 'जन्नत': स्वर्ग, यहां कश्मीर; शद्दाद : एक अहंकारी शासक जो अपने को ईश्वर मानता था और जिसने एक कृत्रिम स्वर्ग बनाने का प्रयास किया ।



गुरुवार, 8 सितंबर 2016

'ख़ुदा' को गिला नहीं !

एहसासे  कमतरी  से  किसी  का  भला  नहीं
क्या  इश्क़  कीजिए  कि  अगर  दिल  खुला  नहीं

ख़्वाबो  ख़्याल  में  ही  सही  राब्ता  तो  है
हों  लाख  दूर  दूर  मगर  फ़ासला  नहीं

तेरी  निगाहे  बर्क़  गिरी  दिल  पे  जिस  जगह
हलचल  हुई  ज़रूर  मगर  ज़लज़ला  नहीं

ग़ालिब  से  पूछते  हैं  मीर  का  मेयार  क्या
यारों  के  पास  और  कोई  मश्ग़ला  नहीं

वो  कोह  था  पिघल  गया  तेरे  जलाल  से
अल्मास  थे  हम  जिस्म  हमारा  जला  नहीं

होते  हैं  क़त्ल  रोज़  फ़रिश्ते  बिला  गुनाह
जन्नत  सुलग  रही  है  'ख़ुदा'  को  गिला  नहीं

राहे  ख़ुदी  में  साथ  न  दे  पाएंगे  मियां
लंबा  सफ़र  है  और  कोई  मरहला नहीं

करके  दुआ  सलाम  निकल  आए  ख़ुल्द  से
'उस  शख़्स'  से  मिज़ाज  हमारा  मिला  नहीं  !

                                                                               (2016)

                                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: एहसासे  कमतरी : हीन भावना; ख़्वाबो  ख़्याल; स्वप्न एवं चिंतन; राब्ता : संपर्क ; फ़ासला :अंतराल, दूरी; निगाहे बर्क़: बिजली जैसी दृष्टि; ज़लज़ला : भूकंप ; 'ग़ालिब', मीर : उर्दू के महानतम शायर ; मेयार: स्तर ; मश्ग़ला : व्यस्तता ; कोह : पर्वत ; जलाल ; तेज ; अल्मास : वज्र, हीरा ; जिस्म : शरीर ; फ़रिश्ते ; देवदूत ; बिला : बिना ; गुनाह : अपराध ; जन्नत : स्वर्ग ; 'ख़ुदा': मालिक, शासक; गिला : शिकायत ; राहे-ख़ुदी : आत्म-बोध का मार्ग ; मियां : श्रीमान,सज्जन ; मरहला: पड़ाव ; दुआ सलाम :औपचारिकता ; ख़ुल्द : स्वर्ग, जन्नत का पर्यायवाची ।