थाम लें हाथ कमनसीबों का
ज़र्फ़ बढ़ जाएगा अदीबों का
कोई समझाए शाहे-ग़ाफ़िल को
रिज़्क़ तो बख़्श दे ग़रीबों का
दिल्लगी ज़ख़्म ही न दे जाए
खेल मत खेलिए क़ज़ीबों का
ईद पर भी गले नहीं मिलते
हाल यह है मिरे हबीबों का
ज़ार को देवता बताते हैं
शोर सुनिए ज़रा नक़ीबों का
ज़िक्र किरदार का जहां आया
मुंह बिगड़ जाएगा नजीबों का
खैंच लेंगे ज़ुबान कब मेरी
क्या भरोसा मिरे रक़ीबों का
थक गए राह में मियां मंसूर
बार उठता नहीं सलीबों का !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: कमनसीबों : अल्प-भाग्य ; ज़र्फ़ : गांभीर्य ; अदीबों : साहित्यकारों ; शाहे-ग़ाफ़िल : मतिभ्रम-ग्रस्त शासक ; रिज़्क़ : भोजन ; बख़्श ( ना ) : छोड़ (ना); हबीबों : प्रिय जनों ; दिल्लगी : हास-परिहास ; ज़ख़्म : घाव; क़ज़ीबों : तलवारों ; ज़ार : निरंकुश, अत्याचारी शासक ; नक़ीबों : चारणों ; ज़िक्र : संदर्भ , उल्लेख ; किरदार : चरित्र ; ज़ुबान : जिव्हा ; भरोसा : विश्वास ; रक़ीबों : शत्रुओं; मंसूर : इस्लाम के अद्वैतवादी दार्शनिक, जिन्हें उनके विचारों कारण सूली पर चढ़ा दिया गया था ; बार : बोझ।
ज़र्फ़ बढ़ जाएगा अदीबों का
कोई समझाए शाहे-ग़ाफ़िल को
रिज़्क़ तो बख़्श दे ग़रीबों का
दिल्लगी ज़ख़्म ही न दे जाए
खेल मत खेलिए क़ज़ीबों का
ईद पर भी गले नहीं मिलते
हाल यह है मिरे हबीबों का
ज़ार को देवता बताते हैं
शोर सुनिए ज़रा नक़ीबों का
ज़िक्र किरदार का जहां आया
मुंह बिगड़ जाएगा नजीबों का
खैंच लेंगे ज़ुबान कब मेरी
क्या भरोसा मिरे रक़ीबों का
थक गए राह में मियां मंसूर
बार उठता नहीं सलीबों का !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: कमनसीबों : अल्प-भाग्य ; ज़र्फ़ : गांभीर्य ; अदीबों : साहित्यकारों ; शाहे-ग़ाफ़िल : मतिभ्रम-ग्रस्त शासक ; रिज़्क़ : भोजन ; बख़्श ( ना ) : छोड़ (ना); हबीबों : प्रिय जनों ; दिल्लगी : हास-परिहास ; ज़ख़्म : घाव; क़ज़ीबों : तलवारों ; ज़ार : निरंकुश, अत्याचारी शासक ; नक़ीबों : चारणों ; ज़िक्र : संदर्भ , उल्लेख ; किरदार : चरित्र ; ज़ुबान : जिव्हा ; भरोसा : विश्वास ; रक़ीबों : शत्रुओं; मंसूर : इस्लाम के अद्वैतवादी दार्शनिक, जिन्हें उनके विचारों कारण सूली पर चढ़ा दिया गया था ; बार : बोझ।