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बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

ये कैसी तरक़्क़ी ...

सुना  तो  बहुत  है,  उजाले  हुए  हैं
हक़ीक़त  में  दिल  और  काले  हुए  हैं

हमीं  पर  ख़ुदा  के  सितम  टूटते  हैं
हमीं  क्या  जहां  में  निराले  हुए  हैं  ?

ग़नीमत  है,  दिल  जिस्म  में  है  अभी  तक
मगर  हां,  जतन  से  संभाले  हुए  हैं

चुनांचे,  हमें  भी  बहुत  रंज  होगा
अगर  वो  हवा  के  हवाले  हुए  हैं

ये  कैसी  तरक़्क़ी  कि  दहक़ान  को  भी
मयस्सर  महज़  दो  निवाले  हुए  हैं

शहंशाह  ही  है,  फ़रिश्ता  नहीं  है
कहां  के  वहम  आप  पाले  हुए  हैं ? !

तुम्हीं  कोई  वाहिद  ग़ज़लगो  नहीं  हो
जहां  में  कई  ज़र्फ़   वाले  हुए  हैं

ख़ुदा  भी  बुलाए  वहां  तो  न  जाएं
कि  जिस  ख़ुल्द  से  हम  निकाले  हुए  हैं  !

                                                                        (2014)

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; सितम: अत्याचार; ग़नीमत: अच्छा, उत्तम; जिस्म: शरीर; जतन: यत्न; चुनांचे: अतएव, फलस्वरूप; रंज: खेद; हवाले: हस्तांतरित; तरक़्क़ी: प्रगति, विकास; दहक़ान: कृषक, खेत-मज़दूर; मयस्सर: उपलब्ध; महज़: मात्र; निवाले: कौर; 
फ़रिश्ता: देवदूत; वहम: भ्रम; वाहिद: एकमात्र, विलक्षण; ग़ज़लगो: ग़ज़ल कहने वाला; ज़र्फ़: गहराई, गंभीरता; ख़ुल्द: स्वर्ग, मिथक के अनुसार, आदि-पुरुष हज़रत आदम को ख़ुदा ने स्वर्ग से बहिष्कृत कर दिया था।