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रविवार, 6 जुलाई 2014

सलवटें पड़ जाएंगी ...

एक  मिसरा  भी  न  हो  जब  पास  में
क्या  ग़ज़ल  कहिए  हुज़ूरे-ख़ास  में

सिर्फ़  बिस्मिल  जानते  हैं  इश्क़  के
क्या  मज़ा  है  दर्द  के  एहसास  में

आए  हैं  वो  आज  पुरशिस  के  लिए
इक  तबस्सुम  है  नसीबे-यास  में

कल  यहां  कुछ  और  मुंसिफ़  बिक  गए
अब  कहां  इंसाफ़  इस  इजलास  में

आपका  भी  फ़र्ज़  है,  कुछ  कीजिए
दूरियां  पैदा  न  हों  इख़्लास    में

नाम  मिट  तो  जाएगा  दिल  से  मगर
सलवटें  पड़  जाएंगी  क़िरतास  में

दूर  करना  चाहते  हैं  वो  हमें
बाल  हो  जैसे  दिले-अलमास  में  !

                                                                         (2014)

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मिसरा: पंक्ति; हुज़ूरे-ख़ास: विशिष्ट जन की गोष्ठी, दरबार; बिस्मिल: घायल; एहसास: अनुभूति; पुरशिस: हाल-चाल पूछना; तबस्सुम: स्मित, मुस्कान; नसीबे-यास: निराश व्यक्ति का प्रारब्ध; मुंसिफ़: न्यायाधीश; इजलास: अदालत; इख़्लास: मित्रता; 
क़िरतास: काग़ज़; बाल: दोष, केश जैसी दरार; दिले-अलमास: हीरे का हृदय, मध्य भाग।