आज क़िस्सा तमाम करते हैं
जां रक़ीबों के नाम करते हैं
होश ले बैठते हैं वो: सब के
जब निगाहों को जाम करते हैं
और क्या कीजिए मियां ग़ालिब
ख़ुम्र में सुब्हो-शाम करते हैं
क़त्ल करते हैं नफ़्स गिन-गिन के
किस नफ़ासत से काम करते हैं
झूठ बातें हैं सब तरक़्क़ी की
वो: फ़क़त क़त्ले-आम करते हैं
लोग ग़ालिब से इश्क़ करते हैं
मीर का एहतराम करते हैं
दाग़ दिल के अभी ज़रा धो लें
फिर ख़ुदा को सलाम करते हैं !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रक़ीबों: शत्रुओं; जाम: मदिरा-पात्र; ख़ुम्र: मदिरा; नफ़्स: सांसें; नफ़ासत: सुगढ़ता; फ़क़त: केवल; क़त्ले-आम: जन-संहार; ग़ालिब, मीर: उर्दू के महानतम ग़ज़लगो; एहतराम: आदर।
जां रक़ीबों के नाम करते हैं
होश ले बैठते हैं वो: सब के
जब निगाहों को जाम करते हैं
और क्या कीजिए मियां ग़ालिब
ख़ुम्र में सुब्हो-शाम करते हैं
क़त्ल करते हैं नफ़्स गिन-गिन के
किस नफ़ासत से काम करते हैं
झूठ बातें हैं सब तरक़्क़ी की
वो: फ़क़त क़त्ले-आम करते हैं
लोग ग़ालिब से इश्क़ करते हैं
मीर का एहतराम करते हैं
दाग़ दिल के अभी ज़रा धो लें
फिर ख़ुदा को सलाम करते हैं !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रक़ीबों: शत्रुओं; जाम: मदिरा-पात्र; ख़ुम्र: मदिरा; नफ़्स: सांसें; नफ़ासत: सुगढ़ता; फ़क़त: केवल; क़त्ले-आम: जन-संहार; ग़ालिब, मीर: उर्दू के महानतम ग़ज़लगो; एहतराम: आदर।