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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

'साझा आसमान' की पहली पोस्ट

अपनी इस ग़ज़ल के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा हूँ ..

मेरा मस्लक अलग है दोस्त तुझसे क्या छिपाऊँ मैं
तुझे कुछ उज्र है    तो कह    तेरे दर पे   ना आऊँ मैं

सुनी शोहरत   तो आया हूँ   मैं  कासा हाथ  में ले के
पिलाता है    तो ले आ ख़ुम  के प्यासा लौट जाऊँ मैं

तू  सारा वक़्त ले ले    और एक     लम्हा मुझे  दे  दे
किसी दिन तो सरे- महफ़िल तुझे दिल से लगाऊँ मैं

महकते हैं   कई दिन से   वो: दिल में  यास्मीं बनके
ये: राज़े- दिलकशी अपना   भला किसको बताऊँ मैं

हुआ जो दर-ब-दर तो क्या तेरा आशिक़ तो कहलाया
भला ये पाक रिश्ता   किस तरह  क्यूँ कर  भुलाऊँ मैं !

                                                                          ( 2010 )

                                                                    -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: मस्लक: पंथ, समुदाय; उज्र: आपत्ति; शोहरत: ख्याति; कासा: भिक्षा-पात्र; ख़ुम: मद्य-भाण्ड; 
सरे- महफ़िल: भरी सभा में; यास्मीं: चमेली; राज़े- दिलकशी: मनमोहकता।