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गुरुवार, 15 अगस्त 2013

बहक न जाए नज़र...

इश्क़    ईमान    हुआ  जाता  है
दर्द      तूफ़ान    हुआ    जाता  है

चल  दिए  दोस्त  बदगुमां  हो  के
शहर   वीरान    हुआ    जाता  है

बहक  न  जाए  नज़र  महफ़िल में
दिल  निगहबान  हुआ    जाता  है

ख़ुदकुशी  कर  न  लें  मियां  ग़ालिब
घर    परेशान     हुआ    जाता  है

खुल  गया  राज़  हमसे  उल्फ़त  का
वो:    पशेमान    हुआ    जाता  है

हाले-दिल    पे    ग़ज़ल   कहें  कैसे
दाग़     उन्वान     हुआ    जाता  है 

देख   के    रंग    सियासतदां    के
मुल्क    हैरान    हुआ    जाता  है !

                                     ( 2013 )

                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   ईमान: एक मात्र आस्था; बदगुमां हो के : बुरा मान कर; निगहबान: प्रहरी; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या;  
मियां  ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, 19 वीं शताब्दी के महान शायर; उल्फ़त: लगाव, प्रेम; पशेमान: लज्जित;
हाले-दिल: मनःस्थिति; दाग़: कलंक;    उन्वान: शीर्षक;  सियासतदां: राजनीतिज्ञ। 

क़ैद है रिज़्क़ ...!

मुल्क  उलझा  है  सौ  सवालों  में
क़ैद  है  रिज़्क़  कितने  तालों  में

इत्तेफ़ाक़न   नज़र  में   आए   वो
और  बस, बस  गए  ख़यालों  में

हुक्मरां      मस्त   हुए     बैठे  हैं
हर  तरफ़  से   घिरे   दलालों  में

भूख    जब  इंतेहा  पे    आती  है
आग लगती है दिल के छालों  में

आज  भी   बाज़   नहीं  आए  वो
मुब्तिला  हैं    तमाम   चालों  में

लूट   लेते   हैं    एक   मिसरे  में
है हुनर अब  भी  बा-कमालों  में

छटपटाता   है  छूटने   के   लिए
फंस गया मुल्क किनके जालों  में !


                                            ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रिज़्क़: भोजन, रोज़ी-रोटी; इत्तेफ़ाक़न: संयोग से; हुक्मरां: शासक-वर्ग; इंतेहा: अति; बाज़: छोड़ना; मुब्तिला: व्यस्त; 
मिसरे  में: वाक्य, पंक्ति में;   बा-कमालों: प्रतिभावानों।