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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

सुरूर की बातें ...

झूठ  निकलीं  हुज़ूर  की  बातें
सब  फ़रेबो-फ़ितूर   की  बातें

आप  फ़िरक़ापरस्त  हैं, कहिए
किसलिए  पास-दूर  की  बातें ?

रोज़   दंगा-फ़साद-बदअमनी
सीखिए  कुछ  शऊर  की  बातें

जब  तलक  तख़्त  है,  हुकूमत  है
हैं  तभी  तक  हुज़ूर  की  बातें

शाह  हरगिज़  ख़ुदा  नहीं  होता
बंद  कीजे  ग़ुरूर  की  बातें

दिल  हमारा  उलट-पलट  कीजे
सोचिए  कोहे-नूर  की  बातें

अब  हसीं  रू-ब-रू  नहीं  होते
अब  कहां  वो  सुरूर  की  बातें

आएं  घर  तो  कलाम  कर  लीजे
छोड़िए  कोहे-तूर  की  बातें

और  भी  काम  हैं  अदीबों  के
बस,  बहुत  हैं  हुज़ूर  की  बातें  !

                                                             (2014)

                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फ़रेबो-फ़ितूर: धूर्तता और उपद्रव; फ़िरक़ापरस्त: सांप्रदायिक; फ़साद: उपद्रव; बदअमनी: अशांति; शऊर: बुद्धिमत्ता; तख़्त: कुर्सी; हुकूमत: शासन; हरगिज़: कदापि; ग़ुरूर: घमंड; कोहे-नूर: संसार-प्रसिद्ध हीरा; हसीं: सुंदर व्यक्ति; रू-ब-रू: समक्ष; सुरूर: उन्माद; 
कलाम:  संवाद, वार्तालाप; कोहे-तूर: मिस्र के साम में एक पर्वत जहां हज़रत मूसा ख़ुदा के साथ संवाद करते थे; अदीबों: साहित्यकारों।


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