सियासत सीख कर पछताए हो क्या
सलामत सर बचा कर लाए हो क्या
उड़ी रंगत कहीं सब कह न डाले
हमारे तंज़ से मुरझाए हो क्या
लबों पर बर्फ़ आंखों में उदासी
कहीं पर चोट दिल की खाए हो क्या
बहुत दिन बाद ख़ुश आए नज़र तुम
हमारे ख़्वाब से टकराए हो क्या
तुम्हारी नब्ज़ इतनी सर्द क्यूं है
किसी का क़त्ल करके आए हो क्या
सितम हर शाह करता है मगर तुम
किसी जल्लाद के सिखलाए हो क्या
नमाज़ें पढ़ रहे हो पंजवक़्ता
ख़ुदा के ख़ौफ़ से थर्राए हो क्या ?!
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ : सियासत: राजनीति; सलामत :सुरक्षित; तंज़: व्यंग्य; लबों: होंठों; नब्ज़: नाड़ी, स्पंदन; सर्द:ठंडी; सितम: अत्याचार; जल्लाद: वधिक; पंजवक़्ता: पांचों समय की; ख़ौफ़: भय ।
सलामत सर बचा कर लाए हो क्या
उड़ी रंगत कहीं सब कह न डाले
हमारे तंज़ से मुरझाए हो क्या
लबों पर बर्फ़ आंखों में उदासी
कहीं पर चोट दिल की खाए हो क्या
बहुत दिन बाद ख़ुश आए नज़र तुम
हमारे ख़्वाब से टकराए हो क्या
तुम्हारी नब्ज़ इतनी सर्द क्यूं है
किसी का क़त्ल करके आए हो क्या
सितम हर शाह करता है मगर तुम
किसी जल्लाद के सिखलाए हो क्या
नमाज़ें पढ़ रहे हो पंजवक़्ता
ख़ुदा के ख़ौफ़ से थर्राए हो क्या ?!
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ : सियासत: राजनीति; सलामत :सुरक्षित; तंज़: व्यंग्य; लबों: होंठों; नब्ज़: नाड़ी, स्पंदन; सर्द:ठंडी; सितम: अत्याचार; जल्लाद: वधिक; पंजवक़्ता: पांचों समय की; ख़ौफ़: भय ।
Bahut khoob
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, खाना खजाना - ब्लॉग बुलेटिन स्टाइल “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-05-2018) को "उच्चारण ही बनेंगे अब वेदों की ऋचाएँ" (चर्चा अंक-2962) (चर्चा अंक-1956) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंअप्रतिम
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