हर शख़्स के ज़ेह्न में सुलगते सवाल हैं
इस दौर-ए-माशराई में सब तंगहाल हैं
राहत की उनसे कोई भी उम्मीद न कीजे
वो: मग़रिबी अंदाज़ में महव-ए-ख़्याल हैं
निन्यानवे फ़ीसद को नहीं रिज़्क़ तक नसीब
कुछ लोग फ़राऊं की तरह मालामाल हैं
हैरत है शाह-ए-हिन्द को गर्मी नहीं लगती
सब जल रहा है मुल्क में फिर भी निहाल हैं
जागे हैं नौजवान तो उम्मीद बंधी है
बदलेंगे यही क़ौम के जो हालचाल हैं।
(2010)
-सुरेश स्वप्निल
इस दौर-ए-माशराई में सब तंगहाल हैं
राहत की उनसे कोई भी उम्मीद न कीजे
वो: मग़रिबी अंदाज़ में महव-ए-ख़्याल हैं
निन्यानवे फ़ीसद को नहीं रिज़्क़ तक नसीब
कुछ लोग फ़राऊं की तरह मालामाल हैं
हैरत है शाह-ए-हिन्द को गर्मी नहीं लगती
सब जल रहा है मुल्क में फिर भी निहाल हैं
जागे हैं नौजवान तो उम्मीद बंधी है
बदलेंगे यही क़ौम के जो हालचाल हैं।
(2010)
-सुरेश स्वप्निल