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बुधवार, 24 अगस्त 2016

क़ाज़ी करे फ़रेब ....

क़ाज़ी  करे  फ़रेब  तो  अल्लाह  क्या  करे
इक  मर्द  दूजे  मर्द  को  आगाह  क्या  करे

ताजिर  के  हाथ  में  हैं  हुकूमत  की  चाभियां
सरकार  हर  ग़रीब  की  परवाह  क्या  करे

जिस-तिस  के  दर  पे  जाके  न  सर  को  झुकाइए
हो  पीर  ख़ुद  मुरीद  तो  दरगाह  क्या  करे

ग़ालिब  के  तब्सिरे  का  भी  हक़  सामईं  को  है
जायज़  न  हो  कलाम  तो  मद्दाह  क्या  करे

लाज़िम  है  शायरी  में  बहकना  ख़याल  का
शायर  हो  ख़ुदपरस्त  तो  इस्लाह  क्या  करे

गर  चोट  जिस्म  पर  हो  तो  आसान  है  दवा
हो  रूह  ज़ख़्म  ज़ख़्म    तो  जर्राह  क्या  करे

मुमकिन  है  हो  तवील  शबे-तार  राह में
तारीक  हों  दिमाग़  तो  मिस्बाह  क्या  करे 1

                                                                                            (2016)

                                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़ाज़ी: धर्माधिकारी, धर्मग्रंथ के आधार पर न्याय करने वाला; फ़रेब : छल; आगाह : सचेत; ताजिर : व्यापारी; हुकूमत : शासन; पीर: पहुंचे हुए, ख्यात संत; मुरीद : अनुयायी; दरगाह : समाधि; तब्सिरा ; समीक्षा; हक़ : अधिकार; सामईं : श्रोता गण; जायज़: उचित; कलाम : रचना; मद्दाह ; प्रशंसक; लाज़िम: स्वाभाविक; ख़्याल: सोच, विचार, कल्पना; ख़ुदपरस्त : आत्म-मुग्ध; इस्लाह : सुझाव, परामर्श; गर: यदि; जिस्म : शरीर;
रूह; आत्मा; ज़ख़्म  ज़ख़्म ; घावों से भरी; जर्राह : शल्य-चिकित्सक; मुमकिन: संभव; तवील : लंबी; शबे-तार : अमावस्या ; तारीक : अंधकार ग्रस्त; मिस्बाह : दीपक ।