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शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

...बिक गए होते !

हम  ज़रा  और  झुक  गए  होते
अर्श  के  मोल  बिक  गए  होते

साथ  देते  तिरी  हुकूमत  का
तो  बहुत  दूर  तक  गए  होते

आपको  मै  नहीं मिली  वर्ना
जाम  छू  कर  बहक  गए  होते

दिल  किसी  का  ख़राब  हो  जाता
हम  ज़रा  भी  सरक  गए  होते

वो  बग़लगीर  तो  हुए  होते
गुल  शहर  के  महक  गए  होते

एक  दिन  आप  घर  चले  आते
लाख  एहसान  चुक  गए  होते

राह  की  मुश्किलें  गिनी  होतीं
सोचते  और  थक  गए  होते  !

                                                                 (2014)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्श  के  मोल: आकाशीय, बहुत ऊंचे मूल्य पर; हुकूमत: सरकार; मै: मदिरा; जाम: मदिरा पात्र; बग़लगीर: आलिंगनबद्ध । 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (04-10-2014) को "अधम रावण जलाया जायेगा" (चर्चा मंच-१७५६) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    विजयादशमी (दशहरा) की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. नमस्कार !
    बहुत सुन्दर रचना
    आपका ब्लॉग देखकर अच्छा लगा !
    मै आपके ब्लॉग को फॉलो कर रहा हूँ
    मेरा आपसे अनुरोध है की कृपया मेरे ब्लॉग पर आये और फॉलो करें और अपने सुझाव दे !

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