वो: जिन दिनों हमारे दिल के पास रहते थे
न जाने गुम कहाँ होश-ओ-हवास रहते थे
ख़ुदारा किसकी निगाहों में जा बसे हैं वो:
अभी-अभी तो मेरे दिल के पास रहते थे
उठाए फिरते हैं अपना सलीब काँधे पर
वो: घर कहाँ के जहाँ ग़म-शनास रहते थे
चमक रहे हैं आज जिनके घर में लाल-ओ-गुहर
सुना है उनके ख़ुदा बे-लिबास रहते थे
हवा ही ऐसी चली है के जी बहाल नहीं
वगरन: हम तो बहुत कम उदास रहते थे
(1996)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: होश-ओ-हवास: ध्यान, आत्म-बोध; ख़ुदारा: हे ईश्वर; ग़म-शनास: दुःख बंटाने वाले; लाल-ओ-गुहर: माणिक्य और मोती; बे-लिबास: दिगंबर; बहाल: स्वस्थ; वगरन:: अन्यथा।
यह ग़ज़ल भी पिछली दोनों ग़ज़लों की तरह 2009 में शाया मजमुए original edition में शामिल है