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मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

हवा ही ऐसी चली है



वो:  जिन   दिनों  हमारे  दिल के  पास    रहते थे
न  जाने  गुम  कहाँ   होश-ओ-हवास      रहते थे

ख़ुदारा   किसकी   निगाहों  में   जा  बसे   हैं   वो:
अभी-अभी   तो    मेरे  दिल   के  पास   रहते  थे

उठाए   फिरते   हैं   अपना    सलीब    काँधे   पर
वो:  घर   कहाँ   के  जहाँ  ग़म-शनास   रहते   थे

चमक रहे हैं आज जिनके घर में लाल-ओ-गुहर  
सुना   है   उनके  ख़ुदा    बे-लिबास      रहते   थे 

हवा   ही   ऐसी  चली    है   के   जी  बहाल   नहीं
वगरन:   हम  तो  बहुत   कम  उदास   रहते   थे
                                                                              (1996)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: होश-ओ-हवास: ध्यान, आत्म-बोध; ख़ुदारा: हे ईश्वर; ग़म-शनास: दुःख बंटाने वाले; लाल-ओ-गुहर: माणिक्य और मोती; बे-लिबास: दिगंबर; बहाल: स्वस्थ; वगरन:: अन्यथा। 

यह ग़ज़ल भी पिछली दोनों ग़ज़लों की तरह 2009 में शाया मजमुए original edition में शामिल है