इश्क़ में घर लुटाए फिरते हैं
शर्म से सर झुकाए फिरते हैं
क्या ग़ज़ल नज़्म क्या दिखावे हैं
सब हक़ीक़त छुपाए फिरते हैं
हुस्न को कोई शै हराम नहीं
सैकड़ों दिल चुराए फिरते हैं
आप यूं शक़ न कीजिए हम पे
हम युं ही मुस्कुराए फिरते हैं
याद वो: कर गए ग़ज़ल मेरी
भीड़ में गुनगुनाए फिरते हैं
टोपियों की दुकां चलाते हैं
और हम सर बचाए फिरते हैं
क्या ख़बर नींद कहां आए हमें
साथ बिस्तर उठाए फिरते हैं
शैख़ जी घिर गए हसीनों में
ख़ुल्द में बौख़लाए फिरते हैं
रहबरों की वुज़ू को क्या कहिए
मालो-ज़र में नहाए फिरते हैं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; शै: वस्तु, कर्म; हराम: अपवित्र, धर्म-विरुद्ध; दुकां: दूकान; ख़ुल्द: स्वर्ग, जन्नत; रहबर: नेता;
वुज़ू: नमाज़ के लिए किया जाने वाला शौच-कर्म; मालो-ज़र: समृद्धि और स्वर्ण।
शर्म से सर झुकाए फिरते हैं
क्या ग़ज़ल नज़्म क्या दिखावे हैं
सब हक़ीक़त छुपाए फिरते हैं
हुस्न को कोई शै हराम नहीं
सैकड़ों दिल चुराए फिरते हैं
आप यूं शक़ न कीजिए हम पे
हम युं ही मुस्कुराए फिरते हैं
याद वो: कर गए ग़ज़ल मेरी
भीड़ में गुनगुनाए फिरते हैं
टोपियों की दुकां चलाते हैं
और हम सर बचाए फिरते हैं
क्या ख़बर नींद कहां आए हमें
साथ बिस्तर उठाए फिरते हैं
शैख़ जी घिर गए हसीनों में
ख़ुल्द में बौख़लाए फिरते हैं
रहबरों की वुज़ू को क्या कहिए
मालो-ज़र में नहाए फिरते हैं !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: हक़ीक़त: यथार्थ; शै: वस्तु, कर्म; हराम: अपवित्र, धर्म-विरुद्ध; दुकां: दूकान; ख़ुल्द: स्वर्ग, जन्नत; रहबर: नेता;
वुज़ू: नमाज़ के लिए किया जाने वाला शौच-कर्म; मालो-ज़र: समृद्धि और स्वर्ण।