दिल मिले हैं तो फ़ासले क्यूं हैं
होंठ हर बात पे सिले क्यूं हैं
तुम ज़मीं पे क़दम नहीं रखते
तो ये: पांवों में आबले क्यूं हैं
दिल रक़ीबों में बांट आते हैं
आप इतने भी मनचले क्यूं हैं
गुनगुनाते हैं वो: ग़ज़ल मेरी
आरिज़े-गुल खिले-खिले क्यूं हैं
कर चुके मंज़िलें फ़तह सारी
दिल में फिर जोशो-वलवले क्यूं हैं
हक़-ओ-इंसाफ़ मांगते हैं हम
वक़्त को इस क़दर गिले क्यूं हैं
मल्कुल-ए-मौत फिर शहर में है
घर खुले हैं मगर खुले क्यूं हैं
शाह दहशतज़दा है रय्यत से
राह-ए-दिल्ली में काफ़िले क्यूं हैं
हम चले कोह-ए-तूर की जानिब
आसमानों में ज़लज़ले क्यूं हैं ?
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: आबले: छाले; रक़ीबों: शत्रुओं; आरिज़े-गुल: फूलों के गाल, सतह; फ़तह: विजित; जोशो-वलवले: उत्साह और उमंगें; हक़-ओ-इंसाफ़: अधिकार और न्याय; गिले: आपत्तियां; मल्कुल-ए-मौत: मृत्यु-दूत; दहशतज़दा: भयभीत; रय्यत: नागरिक गण; काफ़िले: यात्री-दल; कोह-ए-तूर: मिथकीय पर्वत, 'अँधेरे का पहाड़', मिथक है कि हज़रत मूसा स. अ. को यहीं ख़ुदा ने दर्शन दिए थे; जानिब: ओर; आसमानों: देवलोक; ज़लज़ले: भूकंप, उथल-पुथल।
होंठ हर बात पे सिले क्यूं हैं
तुम ज़मीं पे क़दम नहीं रखते
तो ये: पांवों में आबले क्यूं हैं
दिल रक़ीबों में बांट आते हैं
आप इतने भी मनचले क्यूं हैं
गुनगुनाते हैं वो: ग़ज़ल मेरी
आरिज़े-गुल खिले-खिले क्यूं हैं
कर चुके मंज़िलें फ़तह सारी
दिल में फिर जोशो-वलवले क्यूं हैं
हक़-ओ-इंसाफ़ मांगते हैं हम
वक़्त को इस क़दर गिले क्यूं हैं
मल्कुल-ए-मौत फिर शहर में है
घर खुले हैं मगर खुले क्यूं हैं
शाह दहशतज़दा है रय्यत से
राह-ए-दिल्ली में काफ़िले क्यूं हैं
हम चले कोह-ए-तूर की जानिब
आसमानों में ज़लज़ले क्यूं हैं ?
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: आबले: छाले; रक़ीबों: शत्रुओं; आरिज़े-गुल: फूलों के गाल, सतह; फ़तह: विजित; जोशो-वलवले: उत्साह और उमंगें; हक़-ओ-इंसाफ़: अधिकार और न्याय; गिले: आपत्तियां; मल्कुल-ए-मौत: मृत्यु-दूत; दहशतज़दा: भयभीत; रय्यत: नागरिक गण; काफ़िले: यात्री-दल; कोह-ए-तूर: मिथकीय पर्वत, 'अँधेरे का पहाड़', मिथक है कि हज़रत मूसा स. अ. को यहीं ख़ुदा ने दर्शन दिए थे; जानिब: ओर; आसमानों: देवलोक; ज़लज़ले: भूकंप, उथल-पुथल।