साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
दिल चुराते हैं तो कमबख़्त बताते भी नहीं
आपका दांव लगे आप उड़ा लें दिल को
हम गई चीज़ का कुछ सोग़ मनाते भी नहीं
आप रूठें तो ज़माने को उठा लें सर पर
हम जो रूठें तो कई रोज़ मनाते भी नहीं
एक तो दर्द उठा लाएं ज़माने भर के
रोग बढ़ जाए तो यारों को दिखाते भी नहीं
सिर्फ़ जुमलों से चलाते हैं हुकूमत सारी
झूठ खुल जाए तो अफ़सोस जताते भी नहीं
वाज़ करते हैं फ़राइज़ पे भरी महफ़िल में
कोई गिर जाए सड़क पर तो उठाते भी नहीं
दम ब दम कुफ़्र का इल्ज़ाम हमें देते हैं
फिर सही वक़्त अज़ां दे के बुलाते भी नहीं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: कमबख़्त: अभागे; सोग़: शोक; जुमलों: वाक्यों, खोखली बातों; हुकूमत: शासन; अफ़सोस: खेद; वाज़: प्रवचन, उपदेश; फ़राइज़: कर्त्तव्य (बहु.); महफ़िल: सभा; दम ब दम: हर सांस में; कुफ़्र: अधर्म, आस्थाहीनता; इल्ज़ाम: आरोप, दोष।
दिल चुराते हैं तो कमबख़्त बताते भी नहीं
आपका दांव लगे आप उड़ा लें दिल को
हम गई चीज़ का कुछ सोग़ मनाते भी नहीं
आप रूठें तो ज़माने को उठा लें सर पर
हम जो रूठें तो कई रोज़ मनाते भी नहीं
एक तो दर्द उठा लाएं ज़माने भर के
रोग बढ़ जाए तो यारों को दिखाते भी नहीं
सिर्फ़ जुमलों से चलाते हैं हुकूमत सारी
झूठ खुल जाए तो अफ़सोस जताते भी नहीं
वाज़ करते हैं फ़राइज़ पे भरी महफ़िल में
कोई गिर जाए सड़क पर तो उठाते भी नहीं
दम ब दम कुफ़्र का इल्ज़ाम हमें देते हैं
फिर सही वक़्त अज़ां दे के बुलाते भी नहीं !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: कमबख़्त: अभागे; सोग़: शोक; जुमलों: वाक्यों, खोखली बातों; हुकूमत: शासन; अफ़सोस: खेद; वाज़: प्रवचन, उपदेश; फ़राइज़: कर्त्तव्य (बहु.); महफ़िल: सभा; दम ब दम: हर सांस में; कुफ़्र: अधर्म, आस्थाहीनता; इल्ज़ाम: आरोप, दोष।