और उम्मीद क्या कीजिए
हो सके तो वफ़ा कीजिए
हाथ आए न जब काफ़िया
दिल से इस्लाह लिया कीजिए
कब तलक दिल के दुखड़े सुनें
कुछ नया भी कहा कीजिए
दिन-ब-दिन दिल-ब-दिल दर-ब-दर
अपने घर भी रहा कीजिए
दिल में आ ही गए हैं तो ख़ैर
अब यहीं बोरिया कीजिए
ऐ अदम आज तो बख्श दे
वो हों मेहमाँ तो क्या कीजिए
हम चले उनकी आग़ोश में
मोमिनों रास्ता कीजिए !
(2010)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: