ख़रों को मुबारक ख़रों का ज़माना
अजब सरफिरे रहबरों का ज़माना
न देखेगी नरगिस न गाएगी बुलबुल
न आएगा दीदावरों का ज़माना
जहां मौसिक़ी की इजाज़त न होगी
वहां क्या करेगा सुरों का ज़माना
जिन्होंने चुना है बड़े शौक़ से अब
निभाएं वही मसख़रों का ज़माना
ये जम्हूर आख़िर कहां तक सहेगा
सियासत के बाज़ीगरों का ज़माना
चुराने लगा मुफ़लिसों की कमाई
नई तर्ज़ के मुख़बिरों का ज़माना
यही वक़्त है लाल परचम उठाओ
बदल दो बड़े साहिरों का ज़माना
मुहब्बत बसाएगी वो घर दोबारा
मिटाएगा जो ताजिरों का ज़माना !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थः ख़रों : गधों; रहबरों: नेताओं; नरगिस: एक फूल, जिसकी एक पंखुड़ी में आंख के समान आकृति बनी होती है; बुलबुल: कोयल; दीदावरों: दृष्टि-संपन्न व्यक्तियों; मसख़रों: भांडों; जम्हूर: लोकतंत्र; सियासत: राजनीति; बाज़ीगरों: खिलाड़ियों; परचम: ध्वज, पताका; मुफ़लिसों: वंचितों, दीन हीनों; तर्ज़: शैली; साहिरों: जादूगरों, मायावियों; मुख़बिरों: टोह लेने वालों; ताजिरों: व्यापारियों, पूंजीपतियों।
अजब सरफिरे रहबरों का ज़माना
न देखेगी नरगिस न गाएगी बुलबुल
न आएगा दीदावरों का ज़माना
जहां मौसिक़ी की इजाज़त न होगी
वहां क्या करेगा सुरों का ज़माना
जिन्होंने चुना है बड़े शौक़ से अब
निभाएं वही मसख़रों का ज़माना
ये जम्हूर आख़िर कहां तक सहेगा
सियासत के बाज़ीगरों का ज़माना
चुराने लगा मुफ़लिसों की कमाई
नई तर्ज़ के मुख़बिरों का ज़माना
यही वक़्त है लाल परचम उठाओ
बदल दो बड़े साहिरों का ज़माना
मुहब्बत बसाएगी वो घर दोबारा
मिटाएगा जो ताजिरों का ज़माना !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थः ख़रों : गधों; रहबरों: नेताओं; नरगिस: एक फूल, जिसकी एक पंखुड़ी में आंख के समान आकृति बनी होती है; बुलबुल: कोयल; दीदावरों: दृष्टि-संपन्न व्यक्तियों; मसख़रों: भांडों; जम्हूर: लोकतंत्र; सियासत: राजनीति; बाज़ीगरों: खिलाड़ियों; परचम: ध्वज, पताका; मुफ़लिसों: वंचितों, दीन हीनों; तर्ज़: शैली; साहिरों: जादूगरों, मायावियों; मुख़बिरों: टोह लेने वालों; ताजिरों: व्यापारियों, पूंजीपतियों।