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बुधवार, 18 जून 2014

अच्छे दिनों से क़ब्ल...

मजमूं  तड़प  रहे  हैं  रिहाई  के  वास्ते
लब  खोलिए  जनाब  ख़ुदाई  के  वास्ते

गर्दो-ग़ुबार  रूह  तलक  आ  न  पाएंगे
कहते  हैं  शे'र  दिल  की  सफ़ाई  के  वास्ते

तहज़ीब  तिरे  शह्र  से  कुछ  दूर  रुक  गई
मिलते  हैं  लोग  रस्म-अदाई  के  वास्ते

अच्छे  दिनों  से  क़ब्ल  हमें  अक़्ल  आ  गई
कासा  मंगा  लिया  है  गदाई  के  वास्ते

फ़रमाने-शाह  है  कि  सर-ब-सज्द: सब  रहें
वो:  क़त्ल  कर  रहे  हैं  भलाई  के  वास्ते

जश्ने-जम्हूर  रंग  पे  आया  है  इस  तरह
दुम्बे  सजे  हुए  हैं  क़साई  के  वास्ते

सुनते  हैं  तिरी  बज़्म  में  हाज़िर  हैं  शाहे-अर्श 
हम  भी  खड़े  हुए  हैं  रसाई  के  वास्ते

फ़ातेह  क्या  हुए  कि  निगाहें  बदल  गईं
लाए  हैं  नमक  ज़ख़्म-कुशाई  के  वास्ते

रिश्वत से  मुअज़्ज़िन  की  जिन्हें  नौकरी  मिली
देते  हैं  अज़ां  नेक  कमाई  के  वास्ते ! 

                                                                 (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मजमूं: विषय, कथ्य; रिहाई: मुक्ति; लब: ओष्ठ; ख़ुदाई: संसार; गर्दो-ग़ुबार: धूल-मिट्टी; तहज़ीब: सभ्यता;  रस्म-अदाई: प्रथा का निर्वाह, औपचारिकता;  क़ब्ल: पहले; कासा: भिक्षा-पात्र;  गदाई: भिक्षा-वृत्ति; फ़रमाने-शाह: शासकीय आदेश; सर-ब-सज्द::नतमस्तक; जश्ने-जम्हूर: लोकतंत्र का उत्सव; दुम्बे:  भेड़; क़साई: वधिक;  बज़्म: सभा, गोष्ठी;  रसाई: पहुंच; फ़ातेह: विजयी; ज़ख़्म-कुशाई: घाव उभारने;  मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला।