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गुरुवार, 6 मार्च 2014

फूल-सा नर्म दिल..

फूल-सा  नर्म  दिल  सनम  का  है
ये:  करिश्मा  किसी  करम  का  है

तोड़  कर  दिल  तमाम  कहते  हैं
अब  ज़माना  नई  नज़्म  का   है

मिरा  होना    अगर     ख़राबी  है
मुद्द'आ    आपके    रहम   का  है

रूह   को    दाग़दार    मत  कीजे
जिस्म  तो  यूं  भी  चार  दम  का  है

आक़बत   को    संवारिए    अपनी
ये:  सबक़  वक़्त  के  सितम  का  है

दरम्यां    दो  दिलों  के    दुनिया  है
फ़ासला   सिर्फ़  इक  क़दम  का  है

मैं  तिरे   अज़्म  की    हक़ीक़त  हूं
तू    नतीजा    मिरे  वहम  का  है  !

                                                     ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: करिश्मा: चमत्कार; करम: ईश्वरीय कृपा; ख़राबी: दोष;  रहम: दया; दाग़दार: कलंकित; दम: सांस; आक़बत: परलोक; सबक़: पाठ, शिक्षा; सितम: अत्याचार; दरम्यां: बीच में; फ़ासला: अंतराल, दूरी; अज़्म: अस्तित्व; हक़ीक़त: यथार्थ; नतीजा: परिणाम; वहम: भ्रम। 

क्या शिकायत करें ?

ज़िंदगी  यूं  रवां  नहीं  होती
और  ग़फ़लत  कहां  नहीं  होती

क्या  मुअम्मा  है,  तिरे  कूचे  में
कोई  हसरत  जवां  नहीं  होती

एक  बस्ती  कहीं  बता  दीजे
कोई  वहशत  जहां  नहीं  होती

क्या  शिकायत  करें  शहंशह  से
मुफ़लिसों  में  ज़ुबां  नहीं  होती

ढूंढते  हैं  वफ़ा  ज़माने  में
चाहते  हैं,  वहां  नहीं  होती

टूटतीं  गर  न  उम्मीदें  अपनी
रू:  सरे-आस्मां  नहीं  होती

ज़ीस्त  जब  रास्ता  नहीं  देती
मौत  भी  मेह्र्बां  नहीं  होती  !

                                             ( 2014 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: रवां: प्रवहमान; ग़फ़लत: भ्रम, त्रुटि; मुअम्मा: पहेली; कूचे: गली; हसरत: इच्छा;  जवां:  पूर्ण; वहशत: उन्माद, क्रूरता; 
मुफ़लिसों: विपन्न जनों; ज़ुबां: वाणी; वफ़ा: आस्था; रू:: आत्मा; सरे-आस्मां: आकाश पर, देवलोक में; ज़ीस्त: जीवन; मेह्र्बां: कृपालु ।