है इरादा हमें मिटाने का
तो हुनर सीख लें सताने का
वो कहीं जान को न आ जाएं
कौन दे मश्विरा निभाने का
आपके पास सौ बहाने हैं
ढब नहीं काम कर दिखाने का
कांपते हैं पतंग उड़ाने में
ख़्वाब है आस्मां झुकाने का
आज इक़बाले-जुर्म कर ही लें
फ़ायदा क्या मियां ! छुपाने का
क़र्ज़ क्यूं लीजिए ज़माने से
माद्दा जब नहीं चुकाने का
कोई अफ़सोस नहीं शाहों को
मुल्क की आबरू लुटाने का
हो गया शौक़ होशियारों को
शाह की जूतियां उठाने का
बेघरों के मकां बनाएंगे
है जिन्हें मर्ज़ घर जलाने का!
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: इरादा:संकल्प; हुनर : कौशल; मश्विरा : सुझाव, परामर्श; ढब:ढंग; ख़्वाब: स्वप्न, आकांक्षा; आस्मां: आकाश;
इक़बाले-जुर्म : अपराध की स्वीकारोक्ति; माद्दा: सामर्थ्य; अफ़सोस:खेद; आबरू:प्रतिष्ठा; मकां: आवास; मर्ज़: रोग ।
तो हुनर सीख लें सताने का
वो कहीं जान को न आ जाएं
कौन दे मश्विरा निभाने का
आपके पास सौ बहाने हैं
ढब नहीं काम कर दिखाने का
कांपते हैं पतंग उड़ाने में
ख़्वाब है आस्मां झुकाने का
आज इक़बाले-जुर्म कर ही लें
फ़ायदा क्या मियां ! छुपाने का
क़र्ज़ क्यूं लीजिए ज़माने से
माद्दा जब नहीं चुकाने का
कोई अफ़सोस नहीं शाहों को
मुल्क की आबरू लुटाने का
हो गया शौक़ होशियारों को
शाह की जूतियां उठाने का
बेघरों के मकां बनाएंगे
है जिन्हें मर्ज़ घर जलाने का!
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: इरादा:संकल्प; हुनर : कौशल; मश्विरा : सुझाव, परामर्श; ढब:ढंग; ख़्वाब: स्वप्न, आकांक्षा; आस्मां: आकाश;
इक़बाले-जुर्म : अपराध की स्वीकारोक्ति; माद्दा: सामर्थ्य; अफ़सोस:खेद; आबरू:प्रतिष्ठा; मकां: आवास; मर्ज़: रोग ।
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