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मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

ख़ंजर देखा है ...

जिन  आंखों  ने  शोख़  समंदर  देखा  है
आज  उन्हीं  ने  ख़ाली  साग़र   देखा  है

नाहक़  उसका ज़र्फ़  ख़बर  में  रहता  है
हमने  भी  तो   ग़ोता  खा   कर  देखा  है

बेज़ारी  बदहाली  जिन्सों  की  तंगी
हर मुश्किल  ने  मेरा  ही  घर  देखा  है

कितने ग़म  कितने सदमे  कितनी  आहें
तुमने  कब  इस  दिल  के  अंदर  देखा  है

उन  बच्चों  से  पूछो  जिनकी  आंखों  ने
वालिद  के  सीने  में   ख़ंजर  देखा  है

ग़ैरतमन्दों !  ख़ुद  पर  भी  लानत  भेजो
गर   चुप  रह  कर  ख़ूनी  मंज़र  देखा  है

ज़िक्र  कर्बला  का  होते  ही  मजलिस  में
हमने  हर  दामन   ख़ूं    से  तर  देखा  है  !

                                                                                       (2015)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शोख़: चंचल, तरंगित; समंदर:समुद्र; साग़र:मदिरा पात्र; नाहक़: बिना तर्क के, निरर्थक; ज़र्फ़:गहनता; ग़ोता: डुबकी; बेज़ारी:चिंता; बदहाली: बुरा समय; जिन्सों: वस्तुओं; तंगी: अभाव; सदमे:आघात; वालिद:पिता;   ख़ंजर: क्षुरा; ग़ैरतमन्दों : स्वाभिमानियों; लानत: निंदा; गर: यदि; ख़ूनी मंज़र: रक्त-रंजित दृश्य; ज़िक्र: उल्लेख; कर्बला: वह रणक्षेत्र जहां हज़रत हुसैन अलैहि सलाम और उनकी संतानों का यज़ीद की सेनाओं ने नृशंसता पूर्वक वध किया था; मजलिस:सभा, यहां आशय मुहर्रम में कर्बला के शहीदों के शोक में की जाने वाली सभा; 
दामन: हृदय-क्षेत्र; ख़ूं से तर :रक्त-रंजित ।


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