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मंगलवार, 17 नवंबर 2015

कोह हैं क्या ...

दर्द  जब  दिल  की  ख़लाओं  से  निकल  जाएंगे
रंग      बे-नूर       फ़ज़ाओं    के     बदल  जाएंगे

कमसिनी  है  कि  वो  जज़्बात  में  बह  जाते  हैं
उम्र  होगी    तो      ख़ताओं  से     संभल  जाएंगे

पेश  हो     ख़ुम्र      तभी     तो      बताएंगे  मर्ज़ी
शैख़   क्या     सिर्फ़    दुआओं  से   बहल   जाएंगे

ज़र्फ़  हममें  हो   तो   दरिय:-ओ-समंदर  क्या  हैं
वर्न:     क़तरे  की     अदाओं  पे     मचल  जाएंगे

आहे-बुलबुल   का    असर    आज    जहां  देखेगा
हाथ   के   तीर     वफ़ाओं    से     फिसल   जाएंगे

नफ़्स  में    दम  है    तो   सौ  बार  बुझा  कर  देखें
हम  वो  शम्'.अ  हैं,   हवाओं  में  भी  जल  जाएंगे

शान   से     आप       हरारत       दिखाइए   हमको 
कोह  हैं  क्या    कि    शुआओं  से    पिघल  जाएंगे  ?!


                                                                                                      (2015)

                                                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़लाओं: एकांतों; बे-नूर: विवर्ण, आभाहीन; फ़ज़ाओं: परिदृश्यों,वातावरणों; कमसिनी: बाल्यावस्था; जज़्बात: भावनाओं; ख़ताओं: भूलों; ख़ुम्र: मदिरा; मर्ज़ी: इच्छा; शैख़: धर्मभीरु; दुआओं: प्रार्थनाओं, शुभेच्छाओं; ज़र्फ़: गहनता; दरिय:-ओ-समंदर: नदी और समुद्र; वर्न::अन्यथा; क़तरे: बूंद; अदाओं: भाव-भंगिमाओं; आहे-बुलबुल: मैना का आर्त्तनाद; वफ़ाओं: निष्ठाओं; नफ़्स: प्राण, सांस, फेफड़े; 
शम्'.अ: दीपिका; हरारत: प्रचंड तेज, ऊष्मा; कोह:पर्वत, मिथक के अनुसार ईश्वर के प्रकट होने पर कोह-ए-तूर नाम का पर्वत उनके प्रचंड तेज से पिघल गया था; शुआओं: किरणों ।

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