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मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

दर्द का तूफ़ान ...!

मुमकिन  नहीं  है  वक़्त  के  अरमान  समझना
इस  नग़्म:-ए-ख़तर   के   अरकान  समझना

आना  किसी  पे  दिल  का  गुनह  तो  नहीं  मगर
ख़तरा  है  राहे-इश्क़   को  आसान  समझना

उस  रश्क़े-माहताब   के  दिल  में  रहम  कहां
वो:  जान  बख़्श  दे  तो  एहसान  समझना

सीखा  है  ज़िंदगी  का  सबक़  आपसे   यही
दुश्मन  भी  दर  पे  आए  तो  भगवान  समझना

मिलता  है  मुस्कुरा  के  जो  हर  बार  आपसे
सीने  में  उसके  दर्द  का  तूफ़ान   समझना


आने  लगे  मज़ा  जो  सियासत  में  आपको
ख़तरे  में  दोस्त  आपका  ईमान  समझना

अगली  सदी  में  आप  हमें  याद  जब  करें
ख़ुद  को  ही  मेरी  नज़्म  का  उन्वान  समझना

ला'नत  है  ऐसे  शाह  पे  जिसने  जम्हूर  में
सीखा  नहीं  ग़रीब  को  इंसान  समझना  ! 

                                                                   ( 2014 )

                                                             -सुरेश स्वप्निल 

शब्दार्थ: नग़्म:-ए-ख़तर: संकट में डालने वाला गीत; अरकान: शब्दांश, विराम; गुनह: गुनाह का संक्षेप, अपराध ;  रश्क़े-माहताब: चंद्रमा की ईर्ष्या का कारण; सबक़: पाठ; दर: द्वार; सियासत: राजनीति; ईमान: आस्था;  उन्वान: शीर्षक; ला'नत: धिक्कार; जम्हूर: लोकतंत्र ।

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