Translate

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

कहां तक गिरोगे ...?

नमी   ही    नहीं   है    तुम्हारी   नज़र  में
ये:  दौलत  लुटा  आए  किसके  असर  में

नहीं  सर  पे  साया   कहीं  इस  सफ़र  में
बड़ी  तेज़    है  धूप    दिल  के    शहर  में

वही     रंजो-ग़म     हैं,     वही    आरज़ूएं
नया  कुछ  नहीं    ज़िंदगी  की   ख़बर  में

ये:  मासूमियत     देखिए     क़ातिलों  की
दवा    दे  रहे  हैं    मिला  कर     ज़हर  में

ये:  दावा-ए-उल्फ़त  है  कमज़ोर  कितना
बराबर  वज़न  में,   न  कामिल   बहर  में

बहुत   क़ीमती   है   ये:   सरमाय:-ए-ईमां
न  आए  कभी     दुश्मनों  की    नज़र  में

हज़ारों   गुनाहों   पे     बस     एक  माफ़ी
कहां  तक  गिरोगे  किसी  की  नज़र  में  ?!

                                                             ( 2014 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: साया: छाया; रंजो-ग़म: दु:ख-दर्द; आरज़ूएं: अभिलाषाएं; मासूमियत: अबोधता; दावा-ए-उल्फ़त: प्रेम का स्वत्व; 
वज़न: मात्रा; कामिल बहर: परिपूर्ण छंद; सरमाय:-ए-ईमां: आस्था की पूंजी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें