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सोमवार, 26 नवंबर 2012

जुनूँ -ए -शौक़ की हद

 
दिलेर  शख़्स   है    सबको     गले  लगाता  है 
न  जाने   इतनी  अक़ीदत  कहाँ  से  लाता  है 


उसे  शहर  की  हर  गली  से  इश्क़  है  इतना  
कि  अपने  घर  का  पता  रोज़  भूल  जाता है 

हज़ार पेच-ओ-ख़म हैं जिगर से चश्म तलक 
तलाश-ए -राह  में  हर  अश्क  छटपटाता है

तमाम  कोशिशें  करते  हैं  भूलने  की मगर  
पलट-पलट  के  गया  वक़्त   लौट  आता है 

वो:  अब्र  बन  के  समंदर  पे  छा  रहा  है  अब 
जो अश्क बन के चश्मे-नम में जगमगाता  है

जुनूँ -ए -शौक़  की  हद  देखिए  कि दीवाना  
शब-ए -फ़िराक़   में  शहनाइयां  बजाता  है

लिखा  हुआ  है  दिल  पे  एक नाम, अल्लः  का 
अज़ान  दे  के   न  जाने    किसे  बुलाता  है  !

                                                           ( 2009 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अक़ीदत: आस्था; पेच-ओ-ख़म: घुमाव और मोड़; अब्र: बादल;  अश्क: आंसू; चश्मे-नम: भीगी आंख; जुनूँ -ए -शौक़: लगन का उन्माद; शब-ए -फ़िराक़: वियोग-निशा। 
                                                                                  

यह ग़ज़ल 2009 में भोपाल से शाया हुए मजमुए original edition में उर्दू रस्मुल ख़त और देवनागरी ,दोनों में शामिल है .

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