आदाब अर्ज़
' साझा आसमान ' की शुरुआत के पीछे एक मक़सद यह भी था कि क्यूँ न एक से ज़्यादा शोअरा मिल कर एक ही ज़मीन पर साझा ग़ज़ल कहें ? शुरुआत के लिए , मैं एक मतला पेश कर रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आप सभी एक - एक शेर इसमें जोड़ कर एक मुकम्मल ग़ज़ल को शक्ल दें ।
मतला पेश है :
बारीं पे हुस्न , अर्श पे आशिक़ नहीं रहे
दोनों जहान अब किसी लायक नहीं रहे
इसके आगे ज़मीन आपकी है । कलम उठाइये और कह डालिये . दूसरा , तीसरा या चौथा पांचवा शेर ।
आपका - सुरेश स्वप्निल
' साझा आसमान ' की शुरुआत के पीछे एक मक़सद यह भी था कि क्यूँ न एक से ज़्यादा शोअरा मिल कर एक ही ज़मीन पर साझा ग़ज़ल कहें ? शुरुआत के लिए , मैं एक मतला पेश कर रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आप सभी एक - एक शेर इसमें जोड़ कर एक मुकम्मल ग़ज़ल को शक्ल दें ।
मतला पेश है :
बारीं पे हुस्न , अर्श पे आशिक़ नहीं रहे
दोनों जहान अब किसी लायक नहीं रहे
इसके आगे ज़मीन आपकी है । कलम उठाइये और कह डालिये . दूसरा , तीसरा या चौथा पांचवा शेर ।
आपका - सुरेश स्वप्निल
जाने क्यूँ ख्वाब के चेहरे पे भी आई है शिकन ,
जवाब देंहटाएंतेरी याद भी अब दर्द के लायक नहीं रहे !!!