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सोमवार, 15 जनवरी 2018

मग़रिब हुई हमारी...

बीमारे-आरज़ू  से        कितने        सवाल  कीजे
पुर्सिश  को  आए  हैं  तो    कुछ  देखभाल  कीजे

चुपचाप  दिल  उठा  कर  चल  तो  दिए  मियांजी
इस  बेमिसाल  शय  का    कुछ  इस्तेमाल  कीजे

मायूस  रहते-रहते               मग़रिब  हुई  हमारी
ख़ुशियां   ग़रीब  दिल  की  अब  तो  बहाल  कीजे

फ़ाक़ों  में      मर  रही  हैं    दहक़ान  की  उमीदें
अय  शाहे-वक़्त  आख़िर  कुछ  तो  कमाल  कीजे

भर  जाए  सल्तनत  से  दिल  आपका  कभी  जब
मेरी  तरह    सड़क  पर     आ  कर  बवाल  कीजे

आमाल  के  मुताबिक़    जो  मिल  गया   बहुत  है
किस  बात  पर    ख़ुदा  का    जीना  मुहाल  कीजे

फिर  आएंगे    पलट  कर    हम   क़ैदे-आस्मां  से
इस      हिज्रे-चंद  रोज़ा  का     क्या  मलाल  कीजे  !

                                                                                                  (2018)

                                                                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: बीमारे-आरज़ू : इच्छाओं के रोगी; पुरसिश : हाल-चाल पूछना; शय: वस्तु ; इस्तेमाल : प्रयोग; फ़ाकों : उपवासों; दहक़ान : कृषक (बहु.); उमीदें : आशाएं; शाहे-वक़्त : वर्त्तमान शासक; कमाल : चमत्कार; आमाल : कर्मों; मुताबिक़ : अनुसार; मुहाल : दुरूह, कठिन; क़ैदे-आस्मां : ईश्वर/स्वर्ग की कारा; हिज्रे-चंद रोज़ा : चार दिन के वियोग; मलाल : खेद।

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