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रविवार, 14 जनवरी 2018

टूट कर रो...

बेख़ुदी    गो    बहुत  ज़रूरी  है
ज़र्फ़  भी  तो  बहुत  ज़रूरी  है

दोस्तों  को  दुआ  न  दे  लेकिन
दुश्मनों  को  बहुत  ज़रूरी  है

जल  न  जाए  फ़सल  उमीदों  की
ग़म  नए  बो  बहुत  ज़रूरी  है

लोग    इस्लाह  तो   करेंगे  ही
वो  करें जो   बहुत  ज़रूरी  है

क्यूं  रहे    इज़्तिराब   सीने  में
दाग़े-दिल  धो  बहुत  ज़रूरी  है

सर्द ख़ूं     संगदिल    ज़माने  में
तान  कर  सो  बहुत  ज़रूरी  है

मर  गया  है  ज़मीर  मुंसिफ़ का
टूट  कर  रो   बहुत  ज़रूरी  है  !

                                                       (2018)

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : बेख़ुदी : आत्म-विस्मरण; गो : यद्यपि; ज़र्फ़ : गंभीरता, गहनता; दुआ : शुभकामना; उमीदों : आशाओं; ग़म : दु:ख; इस्लाह : मार्गदर्शन, सुझाव देना; इज़्तिराब : विकलता; दाग़े-दिल : मन के कलंक, लांछन; सर्द : ऊष्मा-विहीन; ख़ूं :रक्त; संगदिल: पाषाण-ह्रदय; ज़मीर :अंतरात्मा, विवेक;मुंसिफ़ : न्यायाधीश। 
                                           




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