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सोमवार, 18 सितंबर 2017

सज़ा के मुस्तहक़...

मोम  के  हैं  पर  हमारे  और  जलता  आस्मां
कोशिशे-परवाज़  पर  आतिश  उगलता  आस्मां

हम  अगर  मज़्लूम  हैं  तो  भी  सज़ा  के  मुस्तहक़
ख़ुद   हज़ारों  जुर्म  करके  बच  निकलता  आस्मां

सौ  बरस  की  राह  में  नव्वे  बरस  के  इम्तिहां
हर  सफ़र  में  दुश्मनों  के  साथ  चलता  आस्मां

है  करम  उसका  फ़क़त  सरमाएदारों  के  लिए
मुफ़लिसों  के  रिज़्क़  पर  हर  वक़्त  पलता  आस्मां

रोज़  हम  उम्मीद  करते  हैं  किसी  के  फ़ज़्ल  की
रोज़-ो-शब  मुंह   पर  हमारे  ख़ाक   मलता  आस्मां

मोमिनों  के  सामने  भी  झूठ  बोले  गर  ख़ुदा 
गिर   पड़ेगा  एक  दिन  पल  पल  पिघलता  आस्मां

और  तो  कुछ  दे  न  पाया  मांगने  पर  भी  हमें
मग़फ़िरत  की  बात  पर  फ़ित्रत  बदलता  आस्मां  !

                                                                                      (2017)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पर: पंख; आस्मां: आकाश, नियति, ईश्वर, इत्यादि; कोशिशे-परवाज़: उड़ान के प्रयत्न; आतिश: अग्नि; मज़्लूम:अत्याचार-पीड़ित; सज़ा:दंड; मुस्तहक़:पात्र,अधिकारी; जुर्म:अपराध; नव्वे:नब्बे; इम्तिहां:परीक्षाएं; करम:दया,कृपा; फ़क़त:मात्र; सरमाएदारों: संमृद्ध,पूंजीपतियों; मुफ़लिसों: वंचित,निर्धनों; रिज़्क़: जीवनयापन के साधन,भोजन; फ़ज़्ल:कृपा,महानता,दानशीलता; ख़ाक: धूल,मिट्टी, राख़; मोमिनों: आस्तिकों,भक्तजनों; मग़फ़िरत:मोक्ष; फ़ित्रत:स्वभाव,प्रकृति। 




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