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रविवार, 5 जून 2016

तरक़्क़ी के मा'नी

इस  तरह  तो  जहां  में  उजाला  न  हो
के:  शबे-तार  का  रंग  काला  न   हो

मैकदे  में  चला  आए  सैलाबे-नूर
मै  बहे  इस  क़दर  पीने  वाला  न  हो

शैख़  बतलाएं  कब  कब  ख़राबात  में
वो  गिरे  और  हमने  उठाया  न  हो

और  उम्मीद  क्या  कीजिए  आपसे
इश्क़  में  ही  अगर  बोल बाला  न  हो

उस  तरक़्क़ी  के  मा'नी  भला  क्या  हुए
हाथ  अत्फ़ाल  के  गर  निवाला  न  हो

कौन  उसको  कहेगा  तुम्हारी  ग़ज़ल
शे'र  दर  शे'र  जिसका  निराला  न  हो

कोई  शायर  नहीं  दो  जहां  में  जिसे
अर्श  वालों  ने  घर  से  निकाला  न  हो  !

                                                                                  (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ :शबे-तार: अमावस्या ; मदिरालय ; सैलाबे-नूर : प्रकाश का उत्प्लावन ; मै : मदिरा ; क़दर : सीमा तक;
शैख़ : धर्म भीरु , मदिरा विरोधी ; ख़राबात : मदिरालय ; तरक़्क़ी : प्रगति, विकास ; मा'नी : अर्थ ; अत्फ़ाल : शिशुओं ; निवाला : कंवल, कौर ; अर्श वालों : आकाश वालों, ईश्वर ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (06-06-2016) को "पेड़ कटा-अतिक्रमण हटा" (चर्चा अंक-2365) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपका अन्दाज-ए-कलम मुझे बहुत पसंद है। गज़ल वेहतरीन। शेर वेहतरीन। अच्छा लगा।

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