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शनिवार, 5 दिसंबर 2015

चंद क़दमों का सफ़र...

हम  जहां  मंसूरियत  पर  आ  गए
कुछ  क़रीबी  दोस्त  भी  कतरा  गए

जी,  कहा  हमने  'अनलहक़'  ख़ुल्द  में
सूलियां  लेकर  फ़रिश्ते  आ  गए

अब  न  कोहे-तूर  ना  उसके  निशां
कौन  मानेगा  झलक  दिखला  गए ?

क्या  उन्हें  घर  पर  बुलाना  ठीक  है
सीन:  में  जो  कोह  तक  पिघला  गए  !

नाम  उनका  पूछते  कैसे,   मियां
जो  वफ़ा  के  ज़िक्र  पर  ग़श  खा  गए  !

ख़ूब  ग़ालिब  ने  हमें  इस्लाह  की
मयपरस्ती  का  सबक़  सिखला  गए

चंद  क़दमों  का  सफ़र  है  ज़िंदगी
आप  आधी  राह  में  पछता  गए  ?!

                                                                              (2015)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मंसूरियत: हज़रत मंसूर अ. स. का मत, अद्वैतवाद का इस्लामी स्वरूप; 'अनलहक़':'अहं ब्रह्मास्मि', हज़रत मंसूर अ.स. का उद्घोष, जिसके कारण उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया था; ख़ुल्द:स्वर्ग; फ़रिश्ते: देवदूत, मृत्युदूत; कोहे-तूर: अरब की सीना घाटी में स्थित 'तूर' (काला) नामक एक मिथकीय पर्वत, मिथक के अनुसार वहां हज़रत मूसा अ.स. को अल्लाह ने अपनी झलक दिखाई थी; निशां : चिह्न; कोह: पर्वत; वफ़ा:निष्ठा; ज़िक्र:उल्लेख; ग़ालिब:हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; इस्लाह:परामर्श, शिक्षा; मदिरापान; सबक़:पाठ।

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