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रविवार, 2 अगस्त 2015

ग़ज़ल की ज़रूरत

सर  है  तो   इंक़िलाब  है,  दिल  है    तो  दास्तां
खोने  को  कुछ  नहीं  है  तो  पाने  को  दो-जहां

क़ातिल    हैं   इक़्तिदार   में   सूली  पे   बेगुनह
मज़लूम  का    नसीब     संवरता    नहीं    यहां

क्या  ख़ूब   शाह  ने   अवाम  को    दिया  सिला
खाने  को    रोटियां  हैं    न  रहने  को  आशियां

आ'ला   वज़ीर    से      न     ज़ायचा    मिलाइए
अल्लाह    मेह्रबां    तो   गधा   भी    है   पहलवां

उस   दौर   में    ग़ज़ल  की   ज़रूरत   कहां  रही
इंसाफ़   की   तलाश   मुकम्मल   न     हो  जहां

लो    ले   चलीं    हवाएं    उड़ा   कर    हमें  कहीं
गुल  बन  के    मुस्कुराएंगे   शायद   यहां  वहां

राहों   में    वादियों   में      ख़ला   में    बहार  में
हर  सिम्त   तू  ही  तू  है   कि   ढूंढें   तुझे  कहां !

                                                                                        (2015) 

                                                                               - सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: इंक़िलाब: क्रांति; दास्तां: आख्यान, कथा; दो-जहां: इहलोक-परलोक, दोनों संसार; इक़्तिदार: सत्ता; बेगुनह: निरपराध; 
मज़लूम: अत्याचार-पीड़ित; नसीब: प्रारब्ध; अवाम: जन-साधारण; आशियां: घर; आ'ला: मुख्य, उत्तम; वज़ीर: मंत्री; ज़ायचा: जन्म-कुंडली; मेह्रबां: कृपालु; पहलवां: मल्ल;  दौर: काल खंड; इंसाफ़: न्याय; मुकम्मल: संपूर्ण; गुल: पुष्प; वादियों: घाटियों; ख़ला: एकांत, निर्जन; 
सिम्त: ओर।

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